Book Title: Shastrasar Samucchay Author(s): Mohanchand Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ शास्त्रसार समुच्चय —जैन धर्म एवं दर्शन का संक्षिप्त विश्वकोश समीक्षक : डॉ. मोहन चन्द आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के द्वारा माघनन्द्याचार्य कृत 'शास्त्रसार समुच्चय' की कन्नड़ टीका का हिन्दी अनुवाद एवं विशेष व्याख्या का कार्य श्रुतज्ञान के प्रसार की भावना से अनुप्रेरित है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि जैन परम्परा के अनुसार आचार्य द्वारा पालनीय पंचविध आचारों में 'ज्ञानाचार' को प्रमुख स्थान दिया गया है जिसके अनुसार स्वयं स्वाध्याय में प्रवृत्त होना तथा अन्य को स्वाध्याय में प्रवृत्त कराना आचार्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दायित्व स्वीकार किया जाता है - "पंचविध स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः।" (मूलाराधना, ४१६ गाथा पर विजयोदया टीका) जैन धर्म-संघ के इतिहास में श्रुतज्ञान के संरक्षण का कार्य आचार्य वर्ग ही करता आया है। प्रत्येक युग में धर्माचार्य ही तीर्थंकर के मुख से निस्सृत वाणी को जन-साधारण तक पहुंचाते आए हैं। प्राचीन अवधारणाओं को युगानुसारिणी मूल्यों के अनुसार प्रस्तुत करने की सदैव अपेक्षा रहती है जिसके सर्वाधिक आप्त प्रमाण 'आचार्य' ही होते हैं। इस सम्बन्ध में हरिवंशपुराण का स्पष्ट कथन है कि आगम तन्त्र के मूल कर्ता तीर्थंकर वर्धमान थे । उत्तर तन्त्र के प्रणेता गौतम गणधर थे तथा उत्तरोत्तर आगम तन्त्र का विकास आचार्य-वर्ग द्वारा हुआ जो एक प्रकार से सर्वज्ञ की वाणी के अनुवादक ही हैं तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थङ्करःस्वयम् । ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ।। उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कर्तारो बहवः क्रमात् । प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ।। (हरिवंश पुराण १.५६-५७) जैन धर्माचार्यों की उपर्युक्त मर्यादाओं के सन्दर्भ में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा 'शास्त्रसार समुच्चय' का अनुवाद कार्य भी ज्ञान के निर्मल सरिता प्रवाह से आधुनिक जनमानस का किया गया पवित्र अभिषेक है। दूसरे शब्दों में इस धर्मप्राण 'शास्त्रसार समुच्चय' की सक्षम अनुवादपरक अभिव्यक्ति के माध्यम से आचार्य श्री ने स्वानुभूति एवं आत्मज्ञान से सम्बन्धित गम्भीर सत्यानुसन्धान का उद्घाटन किया है । आचार्य श्री द्वारा स्वयं इस ग्रन्थ की उपादेयता को इन शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है-"भगवान् महावीर का शासन विश्वव्यापी हो, मानव-समाज दुर्गुण, दुराचार छोड़कर सन्मार्गगामी बने और विश्व की अशान्ति दूर हो हमारी यही भावना है।" (आलोच्य संस्करण, पृ० ख) जैन परम्परा के अनुसार श्रुतज्ञान की जो निर्मल एवं सारस्वत धारा समय-समय पर आचार्य वर्ग के माध्यम से प्रवाहित होती आई है उसी का अनुसरण करते हुए शास्त्रसार समुच्चय के रचयिता ने अपने ग्रन्थ को मुख्यतया चार अनुयोगों में विभाजित किया है १. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग, तथा ४. द्रव्यानुयोग। १. प्रथमानयोग---प्रथमानुयोग में शास्त्रीय मान्यता के अनुसार ६३ शलाका पुरुषों एवं परमार्थ ज्ञान की चर्चा आती है प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपिपण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः । (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ४३) शास्त्रसार समुच्चय के प्रथमानुयोग में जैन श्रुतज्ञान से सम्बन्धित काल के भेद, कल्पवृक्ष, चौदह कुलकर, सोलह भावना, चौबीस तीर्थकर, चौंतीस अतिशय, पांच महाकल्याण, चार घातिया कर्म, अठारह दोष, ग्यारह समवशरण भूमि, बारह गणधर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नो नारद, ग्यारह रुद्र आदि का वर्णन आया है। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने प्रथमानुयोग सम्बन्धी तत्त्व चर्चा को जनसाधारण की दृष्टि से अत्यन्त सरल एवं सहज शैली में समझाने का प्रयास किया है। सत्र एवं उस पर की गई टीका तो मात्र सन्दर्भ बनकर रह गए हैं। आचार्य श्री के विशेष कथनों एवं व्याख्या सृजन-संकल्प २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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