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वीतराग-योग/ ३३
रहा
बोलने की और काया से चलने-फिरने, खाने-पीने की प्रवत्ति होगी ही। इन प्रवत्तियों का पूर्ण रोका जाना असंभव है। इनका संवरण ही संभव है। यही इनका संवर या संयम है । संवरण का अर्थ है प्रवत्तियों को भोगों की ओर जाने से रोकना तथा सीमित, नियमित व व्यवस्थित करना। जैसे आहार में शरीरनिर्वाह के लिए जितनी वस्तुएँ लेनो हैं, जितनी बार लेनी हैं, जिस समय लेनी हैं, जितनी मात्रा में लेनी हैं उसका नियम करना और उस नियम का लेशमात्र भी भंग नहीं करना । संयम में प्रवृत्ति का पूर्ण त्याग होता है और नियम में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सीमा में त्याग होता है। संयम और नियम में यही अन्तर है ।
नियम की इसी प्रक्रिया को जैनदर्शन में विधिवत प्रस्तुत करते हुए पाठ संवर, तीन गुणवत व चार शिक्षाव्रत का विधान है। स्थानांग के आठवें स्थान में आठ संवर कहे हैं, यथा(१) श्रोत्रइन्द्रियसंवर (२) चाइन्द्रियसंवर (३) घ्राणइन्द्रियसंवर (४) रसनाइन्द्रियसंवर (५) स्पर्शनइन्द्रियसंवर (६) मनसंवर (७) वचनसंवर और (८) कायसंवर । इन्हीं आठ संवरों को नियम-बद्ध करने के लिए गुणव्रत व शिक्षाव्रत कहे हैं। भोगों को द्रव्य से नियमित करने के लिए भोगोपभोगपरिमाणव्रत, अतिथिसंविभागवत, क्षेत्र व काल से नियमित करने के लिए दिग्व्रत व देशावकासिकव्रत, भाव से नियमित करने के लिए अनर्थदंडत्याग, सामायिक व पौषधव्रत कहे हैं।
बौद्ध दर्शन में इन्हें पाठ या दश शील के रूप में कहा है। जिनमें पौषध मुख्य है। पौषध व्रत का स्वरूप व विधान लगभग वैसा ही है जैसा जैनदर्शन में पौषधव्रत का । जैन व बौद्ध दोनों दर्शनों में पौषध (पोषथ) में माला धारण, नत्य-वादन-संगीत का त्याग, स्वर्णरजत प्रादि के भूषणों व विभूषा का त्याग महार्घशय्या-गद्दा प्रादि पर शयन का त्याग करना कहा है तथा कृष्ण व शुक्ल इन दोनों पक्षों की अष्टमी व चतुर्दशी तथा अमावस्या व पूर्णिमा इन छः तिथियों में साधक को पोषध या पोषथ करने का विधान बताया है। अतिथिसंविभाग के स्थान पर बौद्ध दर्शन में भिक्षुसंघ-संविभाग कहा है, परन्तु इन दोनों का भाव एक ही है ।
योगदर्शन में 'शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः' (योग. २-३२) कहा है अर्थात् शौच-पवित्रता-संतोष, समता, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान नियम हैं । यहाँ भी प्रकारान्तर से प्रवृत्तियों के नियमन को ही नियम कहा है।
इन्द्रियों के नियमन से भोगेच्छा का नियमन हा, जिससे अप्राप्त मनोज्ञ भोगों को पाने की, प्राप्त मनोज्ञ भोगों को बनाये रखने की, अमनोज्ञ विषयों व रोगादि को दूर करने की इच्छा या प्रवृत्ति का त्याग हुआ । इसी को जैनदर्शन में प्रार्तध्यान का त्याग कहा है । इससे आक्रंदन-रुदन, शोक-चिन्ता, खिन्नता व विलाप रूप दु:ख स्वत: दूर हो जाते हैं । बहिर्मुखी वृत्ति रोकने में तथा साधना में सहायक प्राहार-बिहार, रहन-सहन, भाषण-भ्रमण आदि के सभी नियमों को योगदर्शन में 'नियम' और जैन-बौद्ध साधनामों में शिक्षावत या शील कहा है।
इस प्रकार संयम या यम-महाव्रत से रौद्रध्यान का और नियम से प्रार्तध्यान का आसमस्थ तम प्रांशिक निवारण हुआ। जिससे चित्त बहिर्मुखी वृत्तियों से हटकर अंतर्मुखी होने योग्य हुआ । आत्मस्थ मन परन्तु अंतर्मुखी होने के लिए शारीरिक स्थिरता एवं मानसिक शांति का होना आवश्यक है। । तब हो सके
आश्वस्त जम
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