________________
AND.
find
Manoos
Amrandi
MAAgain
HEAPE
KAPORTANTRA
NE
Saree
HARATANTRA
चतुर्थ खण्ड | ८८
अनार्चन
गकि
होते हैं, किन्तु वे अनर्थ को जन्म देने वाले होते हैं-खाणी अणत्थाण हु काम-भोगा। कामभोग शल्य हैं, विष हैं और माशीविष के समान हैं, जो कामभोगों (विषयभोगों) की इच्छा करता है, वह उन्हें भोगे विना भी दुर्गति को प्राप्त करता है।
वीतराग कामभोगों में सुख नहीं मानता। वह उनमें दुःख भी नहीं मानता। क्योंकि कामभोग अथवा विषयभोग की सामग्री न समता पैदा करती है और न विषमता पैदा करती है, अपितु उनके प्रति अथवा भोगसामग्री के प्रति रहा हुअा राग एवं द्वेष ही मोह के कारण विकृति (विषमता) पैदा करता है, यथा
ण कामभोगा समयं उर्वति, ण यावि भोगा विमई उति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥ उत्तराध्य. ३२११०१ (न कामभोग समता पैदा करते हैं, न विकृति पैदा करते हैं, जो उनके प्रति (भोग सामग्री के प्रति) प्रद्वेष करता है एवं परिग्रह (राग, आसक्ति) करता है वह उनमें मोह के कारण विकृति प्राप्त करता है। इसी तथ्य को भिन्न प्रकार से ऐसे कहा गया है
विरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा ।
ण तस्स सब्वेवि मणुण्णयं वा, णिव्वत्तयंति अमणुण्णयं वा ॥ ३२॥१०६
इन्द्रियों के शब्दादि विषय, जितने भी है वे सब उस विरक्त (वीतराग) जीव के लिए मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं कर सकते । रूपादि विषयों से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुअा भी दुःख-परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे कमल-पत्र जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता । इस प्रकार जो इन्द्रिय एवं मन के विषय रागी मनुप्य के दुःख के कारण होते हैं वे वीतराग मनुष्य को कभी भी किंचित् भी दु:ख उत्पन्न नहीं करते ।
दुःख कामभोग की सामग्री से नहीं होता, अपितु उनमें रही हुई गृद्धता (प्रासक्ति, राग) से होता है। वह दुःख चाहे लोक के किसी भी प्राणी को क्यों न हो, सारा कामभोगों अथवा विषय भोगों में रही हुई प्रासक्ति (राग) से उत्पन्न होता है। वीतराग पुरुष समस्त दुःखों का अन्त कर देता है । यथा
कामणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्ससदेवगस्स ।
जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ॥ उत्तरा, ३२११९
(देवलोक सहित सम्पूर्ण लोक में जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं, वे काम भोगों में रही आसक्ति से उत्पन्न होते हैं, वीतराग पुरुष उन दुःखों का अन्त कर देता है।)
वीतरागता की प्राप्ति होने का अर्थ है राग-द्वेष का नाश अथवा मोहकर्म का क्षय । मोहकर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का भी क्षय हो जाता है, जैसे कि कहा है
स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ णाणावरणं खणणं ।
तहेव जं सणमावरेइ, जं चंतरायं पकरेइ कम्मं ॥ ३२।१०८ (वह वीतराग अशेष कार्य करके, क्षण भर में ही ज्ञानावरण का क्षय कर देता है तथा दर्शन का आवरण करने वाले कर्म एवं अंतराय कर्म का भी उसी प्रकार क्षय कर देता है।)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org