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________________ पुरुषोत्तमलाल मेनारिया : राजस्थानी साहित्य में जैन साहित्यकारों का स्थान : ७८६ १. विक्रम पंचदंड चोपाई २. अम्बड चौपाई (१५६६) ३. आराम शोभा चौपाई (१५८३) ४. मृगावती चौपाई (१६०२ ) ५. चित्रसेन पद्मावती रास (१६०४) ६. पद्म चरित्र (१६०४) ७. शील रास (१६०४) ८. रोहिणेय रास (१६०५) ६. सिंहासन बत्तीसी चौपाई, (१६११), १०. नल दमयंती रास (१६१४), ११. संग्राम सूरि चौपाई, १२. चंदनबाला रास, १३. नमि राजर्षि संधि (१६३२) १४. साधु वंदना (१६३६), १५. ब्रह्मचरि, १६. श्रीमंधर स्वामी स्तवन, १७. शत्रुजय गिरि मंडण श्री आदिश्वर स्तवन, १८. स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन, १६. पार्श्वनाथ स्तवन, २०. इलापुत्र रास. इनकी एक रचना का उदाहरण इस प्रकार है : ताहरइ दरसण दुरित पुलाई, नव निधि सबि मंदिर थाई, जाई रोग सबि दूरो। समरण संकट सगला नासह, बाध संग पुण नावइ पासइ, आपइ अाणंद पूरो । वामेय वसुहानंद दायक, तेज तिहुयण नायको । धरणेन्द्र सेवत चरण अनुदिन, सयल वंछिय दायको । थंभणाधीश जिणेश प्रभु तूं, पास जिणवर सामिया । वीनती विनइ पयोध जंपइ, सयल पूरवि कामिया । सोलहवीं सदी के जैन कवियों में खरतरगच्छीय कुशललाभ का स्थान महत्त्वपूर्ण है. इनका जन्म सं० १५८० के लगभग माना जाता है. इन्होंने 'माधवानल चोपाई' 'ढोलामारवणीरी चौपाई' और 'पिंगल शिरोमणि,' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचनाएँ की. इनकी अन्य स्फुट रचनाएँ भी उपलब्ध होती हैं. हीरकलश, खरतरगच्छीय सागरचन्द्र सूरि-शाखा के कवि हो गये हैं जिनका जन्म सं० १५६५ माना जाता है. हीरकलश ज्योतिष के विशेष ज्ञाता थे. इनका रचित साहित्य २८ रचनाओं में उपलब्ध हो चुका है. इनके मोती-कपासिया संवाद का उदाहरण इस प्रकार है: मोती: देव पूजउ गुरु त गति जिहां, मंगल काजि विवाह । आदर दीजइ अम्हां तणी, सवि ज करइ उछाह ।। कपासिया: संभलि तवइ कपासीउ, मोती म हूय गमार । गरब न कीजइ बापड़ा, भला भली संसार । मोती: कहि मोती सुण कांकडा, मइ तइ केहो साथ ? हुँ साहुं कंचण सरिस, तइ खल कूकस बाथ । मइ सुर नरवर भेटिया, कीधां जीहां सिंगार । तइ भेटीया गोधण वलद, जिहां कीधा आहार ।। कपासिया: उत्तर दीयह कपासीयउ, अह्म आहार जोइ । गायां गोरस नीपजइ, वलदे करसण होइ । गोधण जदि वाटउ न हुइ, तदि वरतइ कतार । धान वडइ तब बेचीयइ, सोवन मोती हार ।। हेमरत्न सूरि का समय अनुमानतः सं० १६१६ से १६७३ है. इनकी सं० १६४५ में रचित 'गोरा बादल पदमिणी चऊपई' विशेष प्रसिद्ध है. इस रचना में अलाउद्दीन के चित्तौड़-आक्रमण और गोरा बादल की वीरता का वर्णन है. इस कृति में कवि ने विभिन्न रसों का समावेश किया है : “वीरा रस सिणगार रस, हासा रस हित हेज। साम-धरम रस सांभलउ, जिम होवइ तन तेज ॥" Jain Edutech O ury.org
SR No.211841
Book TitleRajashtnani Sahitya me Jain Sahityakaro ka Sthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Manoriya
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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