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________________ .५२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ शताब्दी के कतिपय कुलक इस प्रकार हैं---ब्रह्मचर्य दशसमाधिस्थान कुलक, वंदन दोष ३२ कुलक, गीतार्थ पदावबोध कुलक (पार्श्वचद्र सूरि)', दिनमान कुलक (हीरकलश)। - (१७) हीयाली-कूट या पहेली को हीयाली कहते हैं। हीयालियों का प्रचार सोलहवीं शताब्दी से हुआ। इस काव्य-शैली की प्रमुख कृतियाँ हैं -हरियाली (देपाल), गुरुचेला-संवाद (पिंगल शिरोमणि कुशललाभ कृत के अंश), अष्टलक्ष्मी (समयसुन्दर) इत्यादि । (१८) विविध मुक्तक रचनाएं-जैन कदियों ने जैन धर्म से हटकर अन्य विषयों पर भी गीत, छंद, छप्पय, गजलें, पद, लावनियाँ, भास, शतक, छत्तीसी आदि नामों से भी रचनाएँ की हैं। इनके विषय इतिहास, उत्सव, विनोद आदि हैं। इनके अतिरिक्त जैन मुनियों ने शास्त्रीय विषयों को भी अपने साहित्य का आधार बनाया। इस दृष्टि से व्याकरण, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष प्रभृति अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ एवं उन पर टीकाएँ उपलब्ध हैं। संख्याधारी रचनाओं में छन्दों की प्रमुखता होती हैं। कहीं-कहीं उनमें निहित कथाओं अथवा उपदेशों को भी ये संख्या द्योतित करते हैं। जैसा-वैताल पच्चीसी (ज्ञाचन्द्र) सिंहासन बत्तीसी (मलयचंद्र), विल्हण पंचाशिका (ज्ञानाचार्य) संख्या नामधारी काव्य-रचनाओं में इन्होंने अधिकांशत: धार्मिक स्तुतियां ही लिखी हैं। महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय ग्रन्थ निम्नलिखित हैं (क) व्याकरण शास्त्र-बाल-शिक्षा, उक्ति रत्नाकर, उक्तिसमुच्चय, हेमव्याकरण', उडिंगल-नाममाला ।१० (ख) काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ-पिंगलशिरोमणि, दूहाचंद्रिका, वृत्तरत्नाकर, विदग्ध मुखमंडनबालावबोध इत्यादि। (ग) गणितशास्त्र-लीलावती-भाषा चौपाई, गणितसार-चौपाई, गणित साठिसो इत्यादि । (घ) ज्योतिष शास्त्र-पंचांग-नयन चौपाई, शकुनदीपिका चौपाई, अंगफुरकन चौपाई, वर्षफलाफल सज्झाय आदि।११ गद्य-साहित्य (१६) जैनियों ने पद्य के साथ-साथ राजस्थानी को श्रेष्ठ कोटि की गद्य रचनाएँ भी दी हैं हिन्दी ग्रन्थ के विकासक्रम की भी यही परम्परा प्रथम सोपान है । जैनियों द्वारा लिखित गद्य के दो रूप मिलते हैं-गद्य-पद्य मिश्रित तथा शुद्ध गद्य । गद्य-पद्यमिश्रित गद्य संस्कृत-चम्पू साहित्य के समान ही वचनिका साहित्य के नाम से अभिहित है। चारण गद्य साहित्य में अनेक बचनिकाएं लिखी गई हैं। जैन शैली में इस परम्परा की उपलब्ध रचनाएँ हैं-जिनसमुद्रसूरि री वचनिका, जयचन्दसूरिकृत माता जी री वचनिका (१८वीं शती वि०)। १. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ २. शोध पत्रिका, भाग ७, अंक ४, सं० २०१३ (राजस्थान के एक बड़े कवि हीरकलश) ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, ३ ४. परम्परा, भाग १३; राजस्थान भारती, भाग २, अंक १, १९४८ ई० ५. आनन्द काव्य महोदधि, मौक्तिक ७ ६. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५४५ ७. वही, पृ० ४७४ ८. वही, पृ० ६३६ १. पूज्यप्रवर्तक श्री अम्बालालाजी महाराज अभिनंदन ग्रन्थ ('राजस्थानी जैन साहित्य' नामक लेख), पृ. ४६० १०. परम्परा, भाग १३ ११. पूज्यप्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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