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________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा 525 ... .................................................................. . (20) टोका-टब्बा-बालावबोध-काव्य, आयुर्वेद, व्याकरण प्रभृति मूल रचनाओं के स्पष्टीकरण के लिए पत्रों के किनारों पर जो संक्षिप्त गद्य-टिप्पणियाँ हाँशिये पर लिखी जाती हैं, उन्हें टब्बा तथा विस्तृत स्पष्टीकरण को बालावबोध कहा जाता है। विस्तार के कारण बालावबोध सुबोध होता है। इसमें विविध दृष्टान्तों का भी प्रयोग किया जाता है / मूल-पाठ पृष्ठ के बीच में अंकित होता है। इस शैली में लिखित साहित्य ही टीका कहलाता है। राजस्थानी जैन-टीका साहित्य समृद्ध है। उल्लेखनीय टीकाएँ निम्नलिखित हैं धूर्ताख्यानकथासार, माधवनिदान टब्बा, वैद्य जीवन टब्बा, शतश्लोकी टब्बा, पथ्यापथ्य टब्बा, विवाहपडल बालावबोध, भुवनदीपक बालावबोध, मुहूर्तचिंतामणि बालावबोध, भर्तृहरि भाषा टीका इत्यादि / ' 21. पट्टवली-गुर्वावली-- इनमें जैन लेखकों ने अपनी पट्टावली परम्परा और गुरुपरम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन किया है / ये गद्य-पद्य दोनों रूपों में लिखी गई हैं। तपागच्छ और खरतरगच्छ आदि की पट्टावलियाँ तो प्रसिद्ध हैं ही, पर प्रायः प्रत्येक गच्छ और शाखा की अपनी पट्टावलियाँ लिखी गई हैं। (22) विज्ञप्ति पत्र, विहार पत्र, नियम पत्र, समाचारी-इन पत्रों के अन्तर्गत जैनाचार्यों के भ्रमण, उनके नियम एवं श्रावकों को चातुर्मास, निवास इत्यादि की सूचनाओं का वर्णन किया जाता है / विज्ञप्ति पत्रों में मार्ग में आने वाले नगरों, ग्रामों का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया जाता है। पत्र लेखन शैली की दृष्टि से भी इनका महत्त्व है। (23) सीख-सीख का अर्थ है शिक्षा / जैन लेखकों ने धार्मिक शिक्षा के प्रचार की दृष्टि से जिन गद्य-रचनाओं का निर्माण किया, वे सीख-ग्रन्थ हैं। इस प्रकार राजस्थानी का जैन-साहित्य विविध विधाओं में लिखा हुआ है। कथाकाव्यों, चरितकाव्यों के रूप में इन कवियों और लेखकों ने जहाँ धार्मिक स्तुतिपरक रचनाओं का निर्माण किया वहीं गद्य रूप में वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। इस साहित्य में चाहे साहित्यिकता का अभाव रहा हो पर भाषा के अध्ययन एवं साहित्यिक रूपों के विकास की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है। जैन साहित्य की आत्मा धार्मिक होने से उसका अंगी रस शान्त है। यों कथा-चरित काव्यों का आरम्भ शृंगार रस से ही हुआ है। विक्रम सम्बन्धी रचनाओं एवं गोरा-बादल सम्बन्धी जैन रचनाओं में वीर रस की भी प्रधानता है। प्रत्येक कृति का आरम्भ मंगलाचरण, गुरु, सिद्ध, ऋषि की वंदना से हुआ है तथा अन्त नायक के संन्यास एवं उसकी सुचारु गृहस्थी के चित्रण द्वारा / चरित-काव्यों एवं मुक्तक रचनाओं के अन्दर लौकिक दृष्टान्तों का स्पर्श है। राजस्थानी जैन गद्य का हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, किन्तु ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्य का संकलन अभी तक अपूर्ण है। 1. पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 464 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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