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________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५२३ . .................................................................. ...... कोट-साहित्य परिपाटी, चैत्य परिपाटी, शान्तिनाथ वीनती (जयसागर) 'स्नात्र पूजा, थावच्याकुमार दास (देपाल), नेमिगीत (मतिशेखर) गुणरत्नाकर-छंद, ईलातीपुत्र-सज्झाय, आदिनाथ शत्रुजय स्तवन (सहजसुन्दर) साधुवंदना; उपदेश रहस्य गीत; वीतरागस्तवन ढाल; आगमछत्रीशी; एषणाशतक; शत्रुजय स्तोत्र (पार्श्व सूरि) स्तंभन पार्श्वनाथस्तवन; गोड़ी-पार्श्वनाथ छंद; पूज्यवाहण गीत; नवकारछंद (कुशललाभ) महावीर पंचकल्याण स्तवन; मनभमरागीत (मालदेव); सोलहस्वान सज्झाय (हीरकलश) इत्यादि । नीतिपरक रचनाएँ यदि जैन साहित्य को उपदेश, ज्ञान और नीति परक भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण, जैन कवियों का मुख्य उद्देश्य धार्मिक प्रचार करना था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने संवाद, कक्का, बत्तीसी, मातृका, बावनी, कुलक, हियाली, हरियाली, गूढा, पारणो, सलोक, कड़ी, कड़ा इत्यादि साहित्यिक विधाओं को ग्रहण किया। इनमें से उल्लेखनीय विधाओं का परिचय इस प्रकार है (१४) संवाद-इनमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को हेय बताते हुए अपने पक्ष को सर्वोपरि रखते हैं। दोनों ही पक्षों. की मूलभावना सम्यक्ज्ञान करवाना है । कुछ संवाद जैनेतर विषयों पर भी है। संवाद संज्ञक रचनाएँ १४वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं। कुछ उल्लेखनीय संवाद निम्नलिखित हैं--आँख-कान संवाद; यौवन-जरा संवाद (सहजसुन्दर); कर-संवाद, रावण-मंदोदरी संवाद, गोरी-साँवली संवाद गीत (लावण्यसमय); जीभ-संवाद, मोती-कपासिया संवाद (हीरकलश); सुखड़ पंचक संवाद (नरपति) इत्यादि । (१५) कक्का-मातृका-बावनी-बारहखड़ी-ये सभी नाम परस्पर पर्याय हैं। इनमें वर्णमाला के बावन अक्षर मानकर प्रत्येक वर्ग के प्रथम अक्षर से आरम्भ कर प्रासंगिक पद रचे जाते हैं। बावनी नाम इस सन्दर्भ में १६वीं शताब्दी से प्रयोग में आया। ऐसी प्रकाशित कुछ रचनाएँ हैं-छीहल बावनी१९, डूंगर बावनी(पद्मनाभ)", शील बावनी (मालदेव)१२, जगदम्बा बावनी (हेमरत्नसूरि)। (१६) कुलक या खुलक-जिस रचना में किसी शास्त्रीय विषय की आवश्यक बातें संक्षेप में संकलित की गई हों अथवा किसी व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय दिया गया हो-ऐसी रचनाएँ कुलक कही जाती हैं।४ १६वीं-१७वीं १. शोधपत्रिका, भाग ६, अंक १, दिस० १६५७ ई० २. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, भाग ३, पृ. ४४६ ३. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पै० ७६८ ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० १२०, भाग ३, पृ०५५७; (१९६२) ५. वही, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ ।। ६. मनोहनस्वरूप माथुर-कुशललाभ और उनका साहित्य (राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोध प्रबन्ध) ७. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १५-१०० ८. शोध पत्रिका, भाग ७, अंक ४ है. डॉ. माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४५ १०. अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर, हस्तलिखित प्रति सं० २८२२२ (अ) ११. श्री अभय जैन ग्रन्थमाला, बीकानेर हस्तलिखित प्रति १२. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २ १३. डॉ० माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २६६ १४. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४, सं० २०१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211834
Book TitleRajasthani Jain Sahitya ki Rup Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswawrup Mathur
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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