________________ 446 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ...... ... १६वीं शताब्दी में ब्रह्म रावमल्ल ने भक्तामरस्तोत्र की वृत्ति लिखी। १७वीं शताब्दी के सर्वतोमुखी और सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महोपाध्याय समयसुन्दर ने सं० 1646 में काश्मीर विजय के समय सम्राट अकबर के सम्मुख 'राजानो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ कर अष्टलक्षी ग्रन्थ रचा। सं० 1656 में विराटनगर में भट्टारक सोमसेन ने पद्मपुराण की रचना की। १७वीं शताब्दी में सन्त हर्षकीति सूरि ने आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ योगचिन्तामणि लिखा। १८वीं शताब्दी में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तनिधान काव्य का निर्माण किया, जिसमें ऋषभदेव, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर इन पाँच तीर्थंकरों तथा राम और कृष्ण के चरित्र निबद्ध हुए। सं० 1705 में भट्टारक श्रीभूषण का पूजासाहित्य, भट्टारक धर्मचन्द (सं० 1726) का गौतमस्वामीचरित, पण्डित जिनदास का होली रेणुकाचरित्र, विराटनगर के पं० राजमल्ल का जम्बूस्वामीनरित्र, वादिराज का वाग्भट्टालंकार, भट्टारक देवेन्द्रकीति की समयसार टीका, भट्टारक सुरेन्द्रकीति की अष्टाह्निका कथा, प्रताप काव्य / आचार्य ज्ञानसागर के वीरोदय, जपोदय एवं दयोदय महाकाव्य, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ के जैनदर्शनसार, सर्वार्थसिद्धिसार; पं० मूलचन्द शास्त्री का वचनदूतम्, मुनि चौथमलजी का भिक्षु शब्दानुशासन, आचार्यश्री तुलसी का जैनसिद्धान्तदीपिका, मनोऽनुशासनम्, मुनिश्री नथमलजी की सम्बोधि, चन्दनमुनि का अभिनिष्क्रमणम्, प्रभवप्रबोधकाव्यम्, आदि संस्कृत काव्य राजस्थान के हैं / सम्प्रति आचार्य विद्यासागर संस्कृत के युवा आचार्य हैं। इनका श्रमणसूक्तम् जैनगीताकाव्य है। इस प्रकार राजस्थान में संस्कृत की सरिता निरन्तर प्रवहमान रही जहाँ जैन मुनियों, आचार्यों, विद्वानों ने संस्कृत साहित्य के संवर्द्धन में योग दिया / वह परम्परा आज भी गतिशील है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org