________________ तीन श्लोकोंके लिये है। पहिले श्लोकमें अहिंसादि पाँच व्रतोंमें प्रसिद्ध होनेवाले पुरुषोंके क्रमशः नाम दिये कोई शब्द न होनेसे और बिना उसके संगति न बैठनेसे समीचीन धर्मशास्त्रकी प्रस्तावना पृष्ठ 71 पर यथाक्रमं पाठकी जगह अन्यथासमं पाठकी परिकल्पना की गई है किन्तु यह ठीक नहीं है। मेरे विचारमें यहाँ उपाख्येया की जगह अपाख्यया पाठ होना चाहिये जो बदनामीका वाचक है। इस सामान्य शब्द परिवर्तनके द्वारा ही इष्टार्थकी प्राप्ति होती है। प्रतिलिपिकारों के प्रमादसे अप का उप हो जाना बहत कुछ सम्भव है / इससे यथाक्रमम् पाठका लोप भी नहीं करना पड़ेगा। अब रहा मूल गुणोंका वाची तीसरा श्लोक, वह तो बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि उसके आगेके श्लोकमें जो यह बताया है कि "अनुबृहणात् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः / / 67 / / इसलिये अगर गुणोंका ही वर्णन करनेवाला श्लोक नहीं होगा, तो गुणोंकी वृद्धि और गुणवतका कथन ही कदापि सम्भव नहीं होगा / जिस तरह बिना पिताके पुत्र नहीं होता, उसी तरह बिना गुणोंके गुणवत सम्भव नहीं। अतः यह श्लोक ग्रन्थका नितान्त आवश्यक अंग है / किसी तरह भी क्षेपक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org