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________________ पवास शब्द मात्रसे ही १२ और १६ प्रहरके उपवासका कथन अभिव्यक्त कर दिया है। यह उन जैसे प्रवचनपटु अद्वितीय रचनाकारका ही काम है। इस प्रसंग में संस्कृत टीकाकारने जो आरम्भका अर्थ सकृद्भुक्ति किया है, वह भी अनोखा है और शब्दशास्त्रादिक से किसी तरह संगत नहीं है । पं० आशाधरजी ने सागारधर्मामृत के अध्याय ७ श्लोक ५ तथा उसके स्वोपज्ञभाष्यमें प्रोषधोपवास के चार भेद किये हैं-आहारत्याग, अंग संस्कारत्याग, सावद्यारंभत्याग, और ब्रह्मचर्य ( आत्मलीनताका पालन )। इसी प्रकारका कथन श्रावक प्रज्ञप्ति और प्रशमरतिप्रकरणादिकी टीका श्वेताम्बराचार्योने भी किया है। इस दृष्टि से जब मैंने रत्नकरण्डश्रावकाचारका अध्ययन किया, तो उसके प्रोषधोपवास विषयक श्लोक १०६ से १०८ में मुझे ये चारों भेद परिलक्षित हुये हैं । जिसका खुलासा इसप्रकार है: पर्वण्यष्टम्यांच ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥१०६ ।। इस श्लोकमें आहारत्यागका कथन है ।। पंचानां पापानामलं क्रियारंभगंधपुष्पाणाम् । स्नानांजन-नस्यानामुपवासे परिहृति कुर्यात् ।। १०७ ।। इस श्लोक में अंगसंस्कारत्याग तथा सावद्यारंभत्याग का कथन है । धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालूः ।। १०८ ।। इस श्लोक में ब्रह्मचर्य ( आत्मलीनता, ध्यान ) का कथन है । सम्भवतः इसीके आधार पर उत्तरवर्ती दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने उक्त चार भेदों की परिकल्पना की है । वस्तुतः इस १५० श्लोक परिणाम छोटे से ग्रन्थमें स्वामी समान्तभद्रने गागरमें सागर भर दिया है । इस ग्रन्थ को जितनी वार पढो उतनी ही वार कुछ नया ज्ञातव्य पाठकको अवश्य मिलता है । इसकी यह विशेषता अन्य श्रावकाचारों में प्रायः नहीं पाई जाती । इस ग्रन्थ के अन्य कुछ श्लोकों पर भी कतिपय विद्वान क्षपकत्वका सन्देह करते हैं । प्रसंगोपात्त यहाँ उनकी भी चर्चा उपयुक्त होगी: मातंगो धनदेवश्री वारिषेणस्ततः परः । नीलो जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ।।६४।। धनथ सत्यघोषौ च तापसारकावपि । उपाख्येयास्तथाश्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ।।६५।। मद्यमांसमधुत्यागः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥७६॥ इन श्लोकों पर छन्दभिन्नत्वके कारण क्षेपकत्वका आरोप किया जाता है । यह ठीक नहीं है । छन्दभिन्नत्व तो प्रथम परिच्छेद और अन्तिम परिच्छेदके अन्तिम इलोकोंमें भी पाया जाता है, अतः यह हेतु अकार्यकारी है । कवि लोग कभी-कभी परिच्छेदके अन्त में छन्द भिन्नता कर देते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ छन्द भिन्नत्व हो, वहाँ प्रायः परिच्छेदकी समाप्ति समझना चाहिये । यही बात यहाँ के २१ - १६१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211809
Book TitleRatnakarandShravaka char me Proshadhopavas Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchandra Katariya
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size570 KB
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