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६६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय पण्डित श्रेष्ठ की संज्ञा देकर भी कवि को जब पूर्ण सन्तोष न हुआ तब उसने पुनः उसे श्रेष्ठतमनगरों का गुरु भी उसे मान लिया.' कवि के उक्त नगर-वैभव के वर्णन की शैली एवं परम्परा नगर के ऐतिहासिक तथ्य को व्यक्त करने की दृष्टि से तो अपना विशेष महत्त्व रखती ही है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्व इस बात में है कि वह परवर्ती साहित्यकारों के लिये एक प्रेरणा का जनक बन गया. जो सिद्धहस्त कवि थे, वे उससे अनुप्राणित हुए तथा जो नवशिक्षित अथवा नव दीक्षित थे. उसका उन्होंने शब्दशः अनुकरण किया. महाकवि रइधू के लगभग ४०-५० वर्ष बाद ही एक माणिक्कराज (वि० सं० १५७६) नाम के कवि हुए हैं, जिन्होंने अपभ्रंस में 'अमरसेन चरिउ' नामक काव्य लिखा था. उसके प्रशस्ति-खण्ड में उन्होंने भी नगर-वर्णन किया है. उक्त कवि ने ४-६ शब्द बदल कर महाकवि रइधू का ग्वालियर नगरवर्णन पूरा का पूरा आत्मसात कर लिया.२ इसी प्रकार 'पण्डित श्रेष्ठ' गोपाचल की चरणरज लेकर अपने को पवित्र मानने वाली सुवर्णरेखा नदी का चमत्कार भी देखिये कवि ने इस प्रकार वर्णित किया है :
सोवराणरेह णं उवहिं जाय णं, तोमरणिव पुण्णण श्राय । ताइवि सोहिउ गोवायलक्खु, णं भज्ज समाण उं णाहु दक्खु । --पासणाह० १।३।१५-१६
सोवण्णरेख गइ जहिं सहए, सज्जण वयणु व सा जलु वहए। -मेहेसर १।४।४ आजकल वही महाभागा सुवर्णरेखा नदी सूखकर मानों काँटा बन गई है. आज वही एक नदी के नाम पर बैलगाड़ी के रास्ते मात्र के रूप में बची है. To the eastside the denseness the houses is interested by the broad bed of the Suvernrekha or golden streak rivulet, which being generally dry, form some of the principal thoroughfares of the city (of Lashkar) and is almost the only one passable by Carts." एक ओर ग्वालियर नगर जहाँ अर्थ एवं कला के वैभव का धनी था, दूसरी ओर वह प्रकृति का प्राङ्गण भी बना हुआ था. वहाँ के नदी, नद, वन, उपवन, विशाल सरोवर, हरे-भरे मैदान, सरोवरों में कूजने वाले कलहंस वापिकाओं में जलक्रीड़ा करने वाले नर-नारी सभी के मनों को मोह लेते थे. एक जगह तो कवि ने बड़ी ही सुन्दर कल्पना की है. उसके अनुसार नगर के 'भवन-भवन नहीं, राजा डूंगरसिंह की सन्तति परम्परा ही थी.' कवि का भाव देखिये कितना गुढ़ है, एक तीर से दो लक्ष्यों की सिद्धि उसने की है. भवनों की कलात्मक भव्यता का दिग्दर्शन एव दूसरी ओर राजा राजा के यश का स्थिरीकरण. महाकवि रइधु ने अपनी प्रशस्तियों में अपने समकालीन दो राजाओं का उल्लेख किया है तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह एवं उनके पुत्र राजा कीति सिंह. ग्वालियर-राज्य के निर्माताओं में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है. डूंगरसिंह जैसा वीर-पराक्रमी, धैर्यशाली, प्रजावत्सल, धार्मिक, उदार, निष्पक्ष, प्रगतिशील, साहित्य-रसिक एवं कलाप्रेमी राजा दूसरा नहीं हुआ. वह राज्य के सुख एवं समृद्धि का जनक था. वहाँ के रइधू कालीन जैन-साहित्य एवं कला के विकास का सारा श्रेय उसीको है. महाकवि रइधू के वर्णन के अनुसार डूंगरसिंह का समय 'सुवर्णकाल' ही था यह स्थिति उसे परम्परा से प्राप्त हुई हो ऐसी बात नहीं. उसने काँटों से भरा-पूरा ताज अपने सिर पर रखा था. मुगलों एवं उनके पूर्व के शत्रु
१. देखिये-पासणाह०१३१७-१८. २. देखिये-हा० कस्तूरचन्द्र जी काशलीवाल द्वारा सम्पादित "प्रशस्ति-संग्रह (जयपुर १९५०) पृष्ठ ८०-८१. ३. See Murrys Northern India Vol. I pages 381-382. ४. देखिये-सम्मत्त०१३१-५. ५. देखिये-मेहेसर०१।४।५.
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