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पंचम खण्ड | ७६
दंभशून्य इच्छा प्राराधक को अपने पथ पर अग्रसर होने को सहजतया उत्साहित करती है। यह साधनोद्यत साधक की प्रारंभिक पर अत्यन्त उपयोगी भूमिका है। इच्छा किसी भी कार्य का पूर्व रूप है । इच्छा जब तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो जाती है तो सहज ही भीतर ही भीतर कर्मशक्ति उद्वेलित होती है।
अर्चनार्चन
इच्छा भावना का विषय है। इच्छा को कार्य की ओर अग्रसर होने में ज्ञान या विवेक का साहचर्य चाहिए । ज्ञान-सहचरित इच्छा यथार्थ की ओर गतिशील होती है।
इच्छायोग की भूमिका में स्थित साधक सम्यक्दृष्टि होता है; ज्ञानसम्पन्न होता है। इच्छा, श्रद्धा और ज्ञान के सहारे वह अपने साधना-पथ पर गतिशील रहता है। पर उसमें निरन्तरता या प्रस्खलितता नहीं रहती, क्योंकि भीतर प्रमाद विद्यमान रहता है, इसलिए उसका योग अविकल नहीं होता, विकास प्रसंपूर्ण होता है। प्रमाद बड़ा भयावह है। माद का अर्थ मदोन्मत्तता, नशा या मस्ती है। जब उसकी मात्रा सघनता ले लेती है, तो वह प्रमाद बन जाता है। प्रमाद से आच्छन्न व्यक्ति पर भीषण नशा छा जाता है। मदिरा पीया हुप्रा मनुष्य जिस प्रकार नशे के कारण लड़खड़ाता हुआ कहीं गिर पड़ता है, वही स्थिति प्रमाद के नशे से ग्रस्त व्यक्ति की होती है। इच्छा उत्साह देती है, ज्ञान मार्ग देता है, प्रास्था गतिशील रहने को प्रेरित करती है । गति में सप्राणता आती है, पर ज्यों ही प्रमाद का एक झटका लगता है, गति कंठित हो जाती है। योग में स्खलना या जाती है। वह विकल, कुण्ठित या बाधित हो जाता है।
जैन आगमों में प्रमाद छोड़ने व अप्रमादमय जीवन स्वीकार करने की स्थान-स्थान पर बड़े स्फूर्त शब्दों में प्रेरणा दी गई है । उत्तराध्ययनसूत्र में इस संदर्भ में बड़ा उद्बोधप्रद विवेचन है । कहा गया है
"जीवन की टूटने वाली डोर सांधी नहीं जा सकती। जरा-वृद्धावस्था से आक्रांत हो जाने पर मनुष्य शक्ति-टुट होकर प्रशरण बन जाता है। इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह जरा भी प्रमाद न करे। जरा सोचे, जो प्रमत्त, हिंसा रत मौर प्रयत-प्रसंयतेन्द्रिय हैं, मौत के समय किसकी शरण ग्रहण करेंगे ?""
और भी कहा है
किं व्रतेन तपोभिर्वा दंभश्चेन्न निराकृतः । किमादर्शन किं दीपर्यद्यान्ध्यं न दृशोर्गतम् ।। केशलोचधराशय्याभिक्षाब्रह्मवतादिकम् । दंभेन दूष्यते सर्व त्रासेनेव महामणिः ।। सुत्यजं रसलापट्यं सुत्यजं देहभूषणम् । सुत्यजाः कामभोगाश्च दुस्त्यजं दंभसेवनम् ।। -अध्यात्मसार ५४-५९ असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स ह णस्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते कण्ण विहिंसा अजया गहिति ।।
-उत्तराध्ययन ४.१
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