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योगदृष्टिसमुच्चय: एक विश्लेषण / ७५
इच्छायोग
प्राचार्य हरिभद्र ने इच्छायोग का विश्लेषण करते हुए लिखा है
"एक ऐसा साधक है, जिसकी धर्म करने की हार्दिक इच्छा है, जो श्रुत या प्रागम के तत्त्व का ज्ञाता है, शास्त्र ज्ञान का जो अधिकारी है, पर प्रमाद के कारण उसका धर्मयोगधर्माराधना विकल या श्रसम्पूर्ण है, ऐसे साधक का योग-उपक्रम इच्छायोग कहा जाता है ।""
इच्छा का श्राशय यहाँ धर्म करने की प्रान्तरिक भावना, परम रुचि, परम प्रीति, भक्ति भाव या प्रशस्त राग है। इस सन्दर्भ में विवेचक विद्वानों ने विशेषरूप से कहा है कि यह इच्छा निर्दभ होनी चाहिए। दंभ, कपट, माया या ढोंग जहाँ इच्छा के साथ जुड़ जाते हैं, वहाँ उसकी निरर्थकता स्वतः सिद्ध है । दंभ आत्मविकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। दंभी के अन्तहृदय में धर्म के पवित्र सिद्धान्त टिक नहीं सकते। उन्हें तो टिकने के लिए पवित्र, सरल, निश्छल पृष्ठभूमि चाहिए। उपाध्याय यशोविजय ने दंभ की परियता का वर्णन करते हुए अध्यात्मसार में बहुत सुन्दर लिखा है । उन्होंने कहा है
"दंभ मुक्ति रूपी बेल को जला डालने के लिए आग है । वह धर्मक्रिया रूपी चन्द्रमा को ग्रस लेने के लिए राहू है दुर्भाग्य या पोर घनिष्ट का कारण है, प्राध्यात्मिक सुख को रोकने के लिए वह अगला है ।
" दंभ ज्ञान के पर्वत को भग्न या विनष्ट कर डालने में वज्र है। वह काम की श्रग्नि को बढ़ाने में घृत है । विपत्तियों का सुहृद् है - मित्र है तथा व्रत लक्ष्मी को चुराने वाला चोर है । "जो व्यक्ति दंभ, छल या स्वदोष प्राच्छादन हेतु व्रत स्वीकार कर परम पद पाना चाहता है वह लोह की नौका पर सवार होकर समुद्र को लांघने की इच्छा करता है।
"यदि दंभ नहीं मिटा तो व्रत से, तप से क्या बनने वाला है? यदि नेत्रों का श्रन्धापन नहीं गया तो दर्पण का क्या उपयोग है ?
"बाल उखाड़ना, जमीन पर सोना, भिक्षा से जीवन चलाना, ब्रह्मचर्यं श्रादि व्रतों का पालन करना - दंभ से ये सब दूषित हो जाते हैं, निष्फल बन जाते हैं, जैसे- काकपदादि दोष काले धब्बे आदि से बहुमूल्य रत्न दूषित हो जाता है ।
"रस लम्पटता सुस्वादु भोजन के प्रति लोलुपता, देह की सज्जा तथा काम्य भोगइनका त्याग सरलता से किया जा सकता है, परन्तु दंभ का त्याग बहुत कठिन है।"
१. कर्तुमिच्छी: श्रुतार्थस्व ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ॥ २. दंभो मुक्तिलतावह्निभो राहु क्रियाविधी । दौर्भाग्यकारणं दंभी दंभोऽध्यात्मसुखाला ॥ दंभी ज्ञानाद्रिदंभोलिभः कामानले हविः । व्यसनानां सुहृदंभो दंभश्चोरो व्रतश्रियः ॥ दंभेन व्रतमास्थाय यो वांछति परं पदम् । लोहनावं समारुह्य सोऽब्धेः पारं यियासति ॥
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योगदृष्टिसमुच्चय ३
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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