SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड / 98 अर्चनार्चन है। वह परम शीतल, अत्यन्त सौम्य तथा शान्त होता है, सहज रूप में सबके लिए प्रानन्द, आह्लाद और उल्लासप्रद होता है। प्रकाशकता की दृष्टि से सूर्य के प्रकाश से उसमें न्यूनता नहीं है। सूर्य दिन में समग्र विश्व को प्रकाशित करता है तो चन्द्रमा रात में। दोनों प्रकाश अपने आप में परिपूर्ण हैं पर हृद्यता, मनोज्ञता की दृष्टि से चन्द्रमा का प्रकाश निश्चय ही सूर्य के प्रकाश से उत्कृष्ट कहा जा सकता है / परा दृष्टि साधक की साधना का उत्कृष्टतम रूप है। चन्द्र की ज्योत्स्ना सारे विश्व को उद्योतित करती है, उसी तरह अर्थात् षोडश कलायुक्त परिपूर्ण चन्द्र की ज्योत्स्ना के सदश परा दृष्टि में प्राप्त बोध-प्रभा समस्त विश्व को, जो ज्ञेयात्मक है, उद्योतित करती है / साधक इस अवस्था में इतना आत्माभिरत या प्रात्मस्थ हो जाता है कि उसकी बोध-ज्योति उद्योत तो अव्याबाध रूप में सर्वत्र करती है पर अपने स्वरूप में अधिष्ठित रहती है, उद्योत्य, प्रकाश्य या ज्ञेयरूप नहीं बन जाती / चन्द्र-ज्योत्स्ना यद्यपि समस्त जागतिक पदार्थों को प्राभामय बना देती है। पर पदार्थमय नहीं बनती। परा दृष्टि में पहुँचा हुमा साधक ऐसी ही सर्वथा स्वाश्रित, स्वभावनिष्ठ, दिव्य, सौम्य बोध-ज्योति से प्राभासित रहता है। उसकी स्थिति सर्वथा प्रात्मपरायण अथवा स्वभाव-परायण बन जाती है, जिसे वेदान्त की भाषा में विशुद्ध अद्वैत से उपमित किया जा सकता है। साधक की यह सद्ध्यानरूप दशा है, जिसमें अव्यवहित तथा निरन्तर प्रात्म-समाधि विद्यमान रहती है। आत्म-स्वरूप में निष्प्रयास परिरमण की यह उच्चतम दशा है, जिसका सुख सर्वथा निर्विकल्प है। बोध तो निर्विकल्प है ही। बोध और सुख की निर्विकल्पता में ध्याता, ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिपदी एकमात्र अभेद प्रात्म-स्वरूप में परिणत हो जाती है, जहाँ द्वैतभाव सर्वथा विलय पा लेता है। यह साधक की परम सुखावस्था है। पर ब्रह्मनिष्ठ योगी वहां आनन्दधन बन जाता है। परम आत्म-सुख या निरुपम ब्रह्मानन्द का वह आस्वाद लेता है। साध्य सध जाता है, करणीय कृत हो जाता है, प्राप्य प्राप्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211797
Book TitleYoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC L Shastri
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy