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________________ योग और ब्रह्मचर्य ४५ . प्राचीन भारत में चार आश्रमों का संविधान था। इनमें तीन आश्रम-ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम एवं संन्यस्ताश्रम-अरण्य में व्यवस्थित थे । केवल एक गृहस्थाश्रम ही नगर में था। गृहस्थाश्रम के अतिरिक्त अन्य तीनों आश्रमों में ब्रह्मचर्य की प्रधानता थी । गृहस्थाश्रम में भी मर्यादाएँ थीं, जिससे आंशिक ब्रह्मचर्य सिद्ध होता था। इस निरीक्षण से अवगत हो जाता है कि चारित्र्यविधान में ब्रह्मचर्म की समता करने वाला दूसरा एक भी .. उपकरण नहीं है । जिस योग में ब्रह्मचर्य के लिए स्थान नहीं है उस योग को 'योग' कहना अज्ञानता ही है, क्योंकि भोग का विपरीत शब्द योग है और योग का पर्याय है ब्रह्मचर्य । योगग्रन्थों में 'बिन्दुयोग' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी है, इससे ब्रह्मचर्य की महत्ता अनायास सिद्ध हो जाती है । भोग पतन एवं योग उत्थान है । भोग में वीर्य की अधोगति और योग में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है । जिसको ब्रह्मचर्य का महत्व ही ज्ञात नहीं है वह विद्वान् होने पर भी मूर्ख है। बिता ब्रह्मचर्य के व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास ही नहीं होता । महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है-ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । “योग द्वारा ऊर्ध्वरेता बनने के पश्चात योगी महापराक्रमी हो जाता है।" वही योगी परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है। जब ब्रह्मचर्य द्वारा असम्भाव्य भी सम्भाव्य हो जाता है तो कीर्ति, लक्ष्मी इत्यादि लौकिक पदार्थों की प्राप्ति सम्भाव्य ही होगी, यह नि:संशय है। एक स्थान पर शिवजी ने पार्वतीजी से कहा है"सिद्धे बिन्दौ महादेवि ! कि न सिद्ध यति भूतले।" "हे पार्वती ! बिन्दु सिद्ध हो जाने पर भूतल में ऐसी कौन सी सिद्धि है कि जो साधक को सम्प्राप्त नहीं होती?" अर्थात् बिन्दुसिद्ध ऊर्ध्वरेता महापुरुष के श्रीचरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी होकर रहती हैं। केवल योगी ही योग के अवलम्ब द्वारा ऊर्ध्वरेता बन सकता है। देवों का देवत्व भी ब्रह्मचर्य पर ही आधारित है-'ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत ।" "देवों ने ब्रह्मचर्य रूप तप से मृत्यु को मार डाला । जहाँ मृत्यु को भी निराशा प्राप्त होती हो वहाँ बेचारे रोगों की क्या सामर्थ्य कि वे ऊर्ध्वरेता महापुरुष के शरीर में प्रवेश कर सकें। ३. ब्रह्मचर्य के महत्व का प्रयोजन कर्मयोगी श्रीकृष्णचन्द्र ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-"बीज मां सर्वभूतानाम् विद्धि पार्थ! सनातनम् ।" "पार्थ ! सर्वभूतों का शाश्वत बीज मैं ही हूँ।" अर्थात् मैं स्वयं ब्रह्म हूँ, सर्व की आत्मा हूँ, शुक्र हूँ और समस्त सृष्टि का कारण हूँ। तभी तो ब्रह्म प्राप्ति के लिए ऋषिमुनि ब्रह्मचर्य की कठोरातिकठोर उपासना करते थे—'यविच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति ।" बिन्दु की यथार्थ महत्ता तो केवल एक योगी ही जानता है । इसीलिए योगीराज गोरक्षनाथजी ने शुक्रस्तुति गाते हुए कहा है-"कंत गयाँ कू कामिनी सूरै, बिन्दु गयाँ · जोगी।" योगशास्त्रकार तो कहते हैं-"जब तक मृत्यु है, तब तक जन्म है और जब तक जन्म है तब तक मृत्यु है।" जन्म एक विवशता है। उसका निरोध शक्य नहीं है किन्तु मृत्यु का तो निरोध हो सकता है। प्राचीन योगविज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि मृत्यु का कारण बिन्दु का अधःपतन और अमरता का कारण बिन्दु का ऊर्ध्वगमन है । यदि मृत्यु जीवन का एक छोर हो तो अमरता जीवन का दूसरा छोर होना चाहिए । यदि मृत्यु का कारण हो सकता है तो उस कारण को विनष्ट करने की मनुष्य में क्षमता भी हो सकती है। जब यन्त्र किसी क्षति के कारण निष्क्रिय हो जाता है तब यान्त्रिक उसको पुनः सक्रिय बना सकता है । तद्वत् किसी क्षति के कारण शरीरयन्त्र भी निष्क्रिय हो जाता है तब पूर्णयोगी उसको पुनः सक्रिय-जीवित बना सकता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् अत्यन्त प्राचीन है। उसमें कहा है-"न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ।" "जिस योगी को योगाग्निमय विशुद्ध शरीर की सम्प्राप्ति हो जाती है उसके शरीर में रोग, वृद्धावस्था एवं मृत्यु प्रविष्ट नहीं हो सकते ।" सबीज समाधि सिद्ध हो जाने पर योगी को योगाग्निमय दिव्यदेह की प्राप्ति होती है । यह दिव्य देह ही सच्चे योगी का बाह्य परिचय है। ४. ब्रह्मचर्य का स्वरूप और उसकी द्विविध साधना योगदर्शन के भाष्यकार महामनीषी व्यासजी ने ब्रह्मचर्य की परिभाषा इस प्रकार की है-"ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।" "विषयेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक परित्याग करना, उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं।" उपस्थ इन्द्रिय के संयम का नाम ही 'निष्काम कर्मयोग' है । उसी को 'ब्रह्मविद्या' भी कहते हैं। उसके अनुष्ठान से योगी ऊर्ध्वरेता बनता है। यह विद्या अत्यन्त रहस्यमयी, अतिप्राचीन और सर्वविद्याओं की जनयित्री है। उसकी प्राप्ति के अनन्तर विश्व में कुछ भी ज्ञातव्य शेष नहीं रहता। ब्रह्मचर्य की महत्ता जानने वाले असंख्य साधक ब्रह्मचर्यपालन का प्रयत्न तो करते हैं किन्तु ब्रह्म-विद्या की उपलब्धि के लिए जैसा ब्रह्मचर्य-पालन अपेक्षित है वैसा ब्रह्मचर्यपालन वे कर नहीं सकते । इसलिए शास्त्र में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211787
Book TitleYog aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKripalvanand
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size674 KB
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