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________________ Sms . ४४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड योग और ब्रह्मचर्य Dयोगाचार्य स्वामी कृपाल्वानन्द-कायावरोहण जि. बरोड़ा, गुजरात] असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय । १. योग योग को 'ब्रह्मविद्या' कहते हैं। यह महाविद्या अतिगूढ, अति प्राचीन एवं सुदुष्कर है। इसकी सिद्धि के लिए अनेक जन्मों की आवश्यकता होती है। यदि तटस्थ दृष्टि से योग का मूल्यांकन किया जाय तो उसको ईशधर्म, विश्वधर्म, सर्वधर्म, मानवधर्म अथवा अमरधर्म ही कहना पड़ेगा। यह सत्य है कि उसकी उद्गम-भूमि भारत ही है तथापि उस पर समस्त विश्व का समान अधिकार है। इसकी सिद्धि के लिए योग पारंगत गुरु की कृपा अनिवार्य है। इस योग का अन्तर्भाव षड्दर्शनों में किया गया है । विश्व में दो निष्ठाएं सुप्रसिद्ध हैं-ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मनिष्ठा, अतएव योग भी दो प्रकार के हो सकते हैंज्ञानयोग एवं कर्मयोग । इन दोनों योगों के अन्तर्गत भक्तियोग आ जाता है, क्योंकि बिना प्रेम के ज्ञान एवं कर्म विफल ही रहते हैं। योग के प्रकार नहीं हो सकते किन्तु मनुष्य में प्रकृतिभेद, संस्कारभेद, साधनभेद, साधनाभेद, शक्तिभेद, अवस्थाभेद इत्यादि अनेक भेद होते हैं। इसी प्रयोजन से योग में अनेकता के दर्शन होते हैं। योग का अर्थ समाधि है। जिस प्रकार जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये मन की तीन अवस्थाएँ हैं, उसी प्रकार समाधि भी मन की एक अवस्था ही है। इस चौथी अवस्था का अनुभव सभी साधारण मनुष्यों को नहीं होता, केवल उच्च कक्षा के योगी को होता है। योग के दो अवान्तर-भेद हैं—सकाम एवं निष्काम । इनमें से पहला सकामयोग 'समाजधर्म' कहलाता है और दूसरा निष्कामयोग 'व्यक्तिधर्म अथवा मोक्षधर्म'। अखिल विश्व के विभिन्न धर्मों में केवल एक ही, समाजधर्म की शाखा उपलब्ध होती है किन्तु भारतीय धर्मों में उपर्युक्त दो शाखाएँ उपलब्ध होती हैं। यही भारतीय धर्मों की विशिष्टता है । पहले समाजधर्म में अनुष्ठान से व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज एवं राष्ट्र समुन्नत बनता है। यह धर्म सर्वोपयोगी है। दूसरा व्यक्तिधर्म वा मोक्षधर्म महापुरुषों का धर्म है । इसी धर्म के अंशों से समाजधर्म का निर्माण किया जाता है। उसमें प्राप्त परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर बाह्य परिवर्तन होता रहता है तथापि उसके मूल अंशों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जाता। २. ब्रह्मचर्य का महत्व योग की परिभाषा में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को 'यम' और शौच, सन्तोष, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान और तप को 'नियम' कहते हैं । यम-नियम ही योग अथवा धर्म का वज्रदुर्ग है। इसके बिना योग वा धर्म की संरक्षा असंभाव्य है। योगपारंगत योगियों ने इन यम-नियमों को सार्वभौम महाव्रत कहा है। समाजधर्म में यमनियम के ही अंश सर्वाधिक होते हैं। समाजधर्म में ब्रह्मचर्य का स्थान सर्वोच्च है। यदि उसका परित्याग करके अन्य शेष अंशों को स्वीकृत कर लिया जाय तो समाजधर्म निष्प्राण शरीर के सदृश ही दिखायी देगा। उसमें चेतना नहीं रहेगी। समाजधर्म द्वारा व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज एवं राष्ट्र का चारित्र्य विधान होता है। -.-. o० O.---. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211787
Book TitleYog aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKripalvanand
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size674 KB
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