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________________ .४६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्य तपोत्तमम् । ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु स देवो न तु मानुषः ॥ "ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है, अन्य तप तप अवश्य हैं किन्तु वे समस्त तप निम्न कक्षा के हैं । जिसने उपस्थ इन्द्रिय का संयम रूप तप किया है वह ऊर्ध्वरेता महापुरुष मनुष्य नहीं किन्तु देव है।" १. ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य हमारे शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियाँ हैं--अन्तःस्रावी एवं बहिःस्रावी । नलिकारहित अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का स्राव रसवाहिनियाँ एवं शिराएँ शोष लेती हैं। इस प्रकार रुधिरशोषित स्राव समस्त शरीर को प्राप्त हो जाता है। दूसरे प्रकार में नलिकावाली बहिःस्रावी ग्रन्थियों का स्राव नलिका द्वारा विविध अवयवों को प्राप्त होता है । बाल्यावस्था में बालक की शुक्रग्रन्थि और बालिका की रजःग्रन्थि में स्राव तो उत्पन्न होता है किन्तु उसको रुधिर शोष लेता है । युवावस्था का अभ्युदय होते ही युवक-युवती के शरीर में काम की ऊर्जा अति प्रबल हो उठती है और वह उनको विह्वल बना देती है । अन्त में स्खलन होता है । इस प्रकार जहाँ एक बार स्खलन हुआ कि सदा के लिए अधोमार्ग खुल जाता है। उसका नियन्त्रण करके ऊर्जा को ऊर्ध्वगामिनी बनाने का दुष्कर कार्य करना, मानो अवनीस्थ प्रवाहित गंगा को आकाश की दिशा में प्रवाहित करना है। ब्रह्मचारी बनना यह एक पक्ष है और ऊर्ध्वरेता बनना यह दूसरा पक्ष है । ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं संन्यासी का ब्रह्मचर्य साधारण ब्रह्मचर्य है और योगी का ब्रह्मचर्य असाधारण ब्रह्मचर्य है । साधारण ब्रह्मचर्य पालन करने वाले व्यक्ति यम-नियम सहित सामान्य योग का प्रश्रय लेते हैं और असाधारण ब्रह्मचर्य पालन करने वाला योगी यम-नियम सहित सहजयोग का प्रश्रय लेता है। दूसरा मार्ग अतिविकट होने से कोई बिरला महापुरुष ही उसकी यात्रा कई जन्मों के पश्चात ही पूर्ण कर सकता है। ब्रह्मचर्य-पालन के लिए कतिपय अत्यावश्यक नियम विजातीय का दूषित भाव से स्मरण नहीं करना चाहिए । मन को व्यग्र करने वाली उसकी चर्चा भी नहीं करनी चाहिए। प्रत्यक्ष में उसके साथ क्रीड़ा भी नहीं करनी चाहिए । उसको अनुराग की दृष्टि से देखना भी नहीं चाहिए। उसके साथ एकान्त में वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए । उपयोग का संकल्प भी नहीं करना चाहिए। उसकी प्राप्ति के लिए निश्चय भी नहीं करना चाहिए और सम्भोग भी नहीं करना चाहिए। अब हम सामान्य साधकों को ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए कुछ वैज्ञानिक उपाय दिखाते हैं। (अ) विशिष्ट उपाय-यदि किसी भी कारण से मन में कामवासना का संचार हो जाय तो नेत्रों को भृकुटि के मध्य में बारम्बार सुस्थिर करना चाहिए, इससे अवांछनीय जागृति का प्रशमन हो जायेगा । अपानवायु प्रबल बनने से गुह्येन्द्रिय जाग्रत होती है और मन विक्षुब्ध । जैसे-जैसे मन विषयमग्न होता जाता है वैसे-वैसे अपानवायु और गुह्य न्द्रिय ये दोनों निरंकुश होते जाते हैं । इस अवस्था में अपान के वेग का प्रतिकार करने के लिए प्राण की शरण लेनी चाहिए। नेत्रों को भृकुटि के मध्य में स्थापित करने से प्राण की शरण प्राप्त हो जाती है । शरण मिलते ही अपान निर्बल होता जाता है और इन्द्रिय की जागति न्यून होती जाती है। भ्रूकुटि में नेत्रों को बारम्बार सुस्थिर करने से वायु की गति में परिवर्तन होता है और वायु की गति में परिवर्तन होने से मन की गति में परिवर्तन होता है । जिस प्रकार यन्त्र के गतिमान चक्र को स्तम्भित करने के लिए हम नियत यन्त्रावयव को दबाते हैं तो वह अवश्य रुक जाता है, उसी प्रकार शरीर यन्त्र के सक्रिय विषय-चक्र को नियन्त्रित करने के लिए नेत्रों को भ्रकुटि में बारम्बार सुस्थिर करना चाहिए। इससे वह अवश्य ही नियन्त्रण में आ जायेगा। यह योगयुक्ति है। संयमी साधकों के लिए तो यह युक्ति देवी सम्पत्ति का भण्डार है। (आ) सामान्य उपाय-१. यदि मन एवं इन्द्रिय में कामवासना का प्राथमिक संचार होने लगा हो तो मात्र एक गिलास शीतल जल पीने से और मन को सद्विचार में प्रवृत्त करने से उसका प्रशमन हो जाता है। २. उस समय माता, बहिन, पुत्री, आराध्यदेव अथवा श्रद्धेय श्री सद्गुरु की पवित्र स्मृति में मन को स्थिर करने से कामवासना निवृत्त हो जाती है किन्तु यहाँ यह आध्येय है कि यदि उन स्मरणीय व्यक्तियों के प्रति परमादर होगा तभी यह क्रिया सिद्ध हो सकेगी। ३. एकान्त के परित्याग से भी कामवासना दूर हो जाती है। ४. उस अवस्था में लघुशंका करके गुह्य न्द्रिय पर पांच मिनट पर्यन्त शीतल जल की पतली धारा डालनी चाहिए। इससे जागृति में बाधा उपस्थित होगी और मस्तिष्क में इस नयी प्रवृत्ति के कारण नवीन विचारों का उद्भव होगा, जिससे विषय-विकार दुर्बल होकर विनष्ट हो जायेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211787
Book TitleYog aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKripalvanand
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size674 KB
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