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________________ योग और आयुर्वेद [] आचार्य राजकुमार जैन एम. ए., एच. पी. ए., दर्शनायुर्वेदाचार्य योगदर्शन या योगशास्त्र सांख्य का ही व्यवहारिक या क्रियात्मक रूप माना जाता है, जिसमें प्रात्म-साक्षात्कार या परमब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयोगात्मक विधियाँ निर्देशित की गई हैं। अध्यात्मकविद्या के आधारभूत सैद्धान्तिक पक्ष को क्रियात्मक रूप एवं प्रयोग के द्वारा योगशास्त्र ने जितना सुगम और सर्वजनोपयोगी बनाकर मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त किया है, उतना किसी अन्य शास्त्र ने नहीं किया। प्रारम्भिक स्थिति में योग या यौगिक क्रियामों का सम्बन्ध शरीरमात्र या शारीरिक अंगों से रहता है। किन्तु जैसे-जैसे योगाभ्यास का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे उसका सम्बन्ध अन्तःकरण और बुद्धि से होता जाता है। अर्थात् यौगिक क्रियाएँ मन और बुद्धि को प्रभावित कर अद्भुतरूप से उसका विकास करती हैं। मन और बुद्धि के चरमविकास के बाद योगाभ्यास प्रात्मा के प्रदेशों का स्पर्श कर उनके कालुष्य का निराकरण कर उन्हें निर्मलता प्रदान करता है, जिससे प्रात्मा में निर्मल ज्ञानज्योति उद्भासित होती है। समस्त प्रकार के शुभाशुभ कर्मों का क्षय होने के कारण समुत्पन्न अद्भुत ज्ञानालोक के द्वारा जब वह प्रात्मा संसार के समस्त भूत-वर्तमान-भविष्य कालीन भावों को जानने व देखने लगता है तब वह इस भौतिक शरीर का परित्याग कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यही उसका परमलक्ष्य है। आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवन-शास्त्र है, जिसमें मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और प्राध्यात्मिक प्रवृत्तियों का अपूर्व सामञ्जस्य है । प्रायुर्वेद यद्यपि मुख्यरूप से प्रारोग्यशास्त्र एवं चिकित्साशास्त्र के रूप में जाना जाता है, किन्तु वह वस्तुतः सम्पूर्ण जीवन-विज्ञानशास्त्र है, जिसमें मनुष्य का चरमलक्ष्य उसके शरीर में स्थित प्रात्मा को सांसारिक कर्मबन्धन से मुक्त करना प्रतिपादित है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक विज्ञ एवं प्रबुद्धजन प्रयत्नशील रहते हैं । प्रात्मा को मुक्तिपथ पर अग्रसर करने के लिए शरीर ही एकमात्र साधन है। शरीर के द्वारा विहित प्रत्येक कर्म और शरीर की प्रत्येक स्थिति प्रात्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। अतः आत्मा के मोक्षसाधन के लिए शरीर का निरोग होना नितान्त आवश्यक है। आरोग्य के बिना पारलौकिक तो क्या इहलौकिक कार्य की सिद्धि होना भी सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राचार्यों ने धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का मूल आरोग्य बतलाया है-"धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।" आयूर्वेदशास्त्र उसी शरीर के प्रारोग्य को यथावत बनाये रखने के लिए नियम, माचरण, पाहार-विहार प्रादि का उपदेश करता है, ताकि तदनुकूल आचरण के द्वारा मनुष्य स्वस्थ रहता हुआ अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सके । यदि कदाचित मनुष्य असात्म्येन्द्रियार्थसंयोग अर्थात् मिथ्या आहार, विहार, प्रज्ञापराध अथवा काल-परिणाम प्रादि के कारण वेदना आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jametray.org
SR No.211782
Book TitleYoga aur Ayurved
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size815 KB
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