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________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड / २२२ ग्रस्त या व्याधिपीडित हो जाता है तो उसके विकारोपशमन के लिए विभिन्न उपायों का उपदेश भी आयुर्वेदशास्त्र में किया गया है। इस प्रकार आयुर्वेद के दो मुख्य प्रयोजन है— स्वस्थ मनुष्यों के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी मनुष्य के रोग का उपशमन करना । महर्षि चरक ने भी इस विषय में स्पष्टतः प्रतिपादित किया है "प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च ।" - चरकसंहिता, सूत्रस्थान ३०/२६ इस प्रकार प्रायुर्वेदशास्त्र मनुष्य के आरोग्यसाधन में सहायक होता है, ताकि मनुष्य अपने आरोग्यवान् शरीर के द्वारा अपनी आत्मा के कल्याणार्थं मोक्ष -साधन में प्रवृत्त हो सके । इसी भांति योगशास्त्र भी अपने प्रारम्भिक-अंगों यम-नियम- आसन-प्राणायाम के द्वारा प्राचरण की शुद्धता, शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा, विकारोपशमन मानसिक द्वन्द्रों के निराकरण और बौद्धिक विकास के कार्य को प्रशस्त करता है। इन प्रारम्भिक अवस्थामों को पार किए बिना मनुष्य आत्म-कल्याण रूप अपने चरमलक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता । योगशास्त्र में मोक्ष के प्रारम्भिक साधन के रूप में यम और नियम का प्रतिपादन किया गया है । यम पांच होते हैं । यम और नियम का पालन करने से मनुष्य के प्राचरण में शुद्धता भाती है, मन में सात्विक भाव का उदय होता है और आत्मा में निर्मलता की वृद्धि होकर कलुषता का विनाश होता है। इस प्रकार शनैः शनैः मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है । आयुर्वेद शास्त्र में भी प्राचरण सम्बन्धी कुछ इस प्रकार के नियमों का प्रतिपादन किया गया है, जो मोक्ष के साधनभूत प्रारम्भिक उपाय हैं और जिन का आचरण करने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है । महर्षि चरक ने उनका उल्लेख निम्न प्रकार से किया है सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्तनम् । व्रतचर्योपवासौ च नियमाश्च पृथग्विधाः ॥ धारणं धर्मशास्त्राणां विज्ञानं विजने रतिः । विषयेष्वरतिर्मोक्षे व्यवसायः परावृतिः ॥ कर्मणामसमारम्भः कृतानां च परिक्षयः । नैष्क्रम्यमनहंकारः संयोगे भयदर्शनम् ॥ मनोबुद्धिसमाधानमर्थतत्वपरीक्षणम् । तत्त्वस्मृतेरुपस्थानात सर्वमेतत् प्रवर्तते ॥ चरकसंहिता, शारीरस्थान ११४३-१४६ सज्जनों की अच्छी प्रकार से सेवा करना, दुष्टजनों का साथ नहीं करना, चान्द्रायण आदि व्रतों का धारण व पालन करना, श्रात्मशुद्धि के लिए उपवास करना, अलग-अलग बतलाए हुए नियमों का पालन करना, धर्मशास्त्रों का अभ्यास, स्वाध्याय व अनुशीलन करना, विज्ञान प्रर्थात् आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना या विशिष्ट निर्मल ज्ञान प्राप्त करना, निर्जन एकान्त स्थान में निवास करना, चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मानसिक विकार भावों में रति नहीं करना, मोक्षसाधक कर्मों में प्रवृत्ति रखना, उत्तम धैर्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211782
Book TitleYoga aur Ayurved
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size815 KB
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