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________________ 5 / साहित्य और इतिहास : 47 अहंकार, पक्षपात, हठ और परस्पर-विद्वेष तथा घृणाका शिकार न हो सकेगा। प्रत्येक मनुष्यके अन्दरसे अपने धर्मको और अपनेको सच्चा और ईमानदार तथा दूसरोंके धर्मोको और दूसरोंको मिथ्या और बेईमान समझनेकी प्रवृत्ति उठ जायगी। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी अपने ऐहिक जीवन में भी सुखसे ही रहना चाहता है। मनुष्य चूंकि क प्राणी है अर्थात् उसका जीवन पशुओं जैसा आत्मनिर्भर न होकर, प्रायः सामाजिक सहयोगपर ही निर्भर है / इसलिये संबद्ध मानवसमष्टिका ऐहिक जीवन जबतक सुखी नहीं हो जाता है तबतक संवद्ध मानवव्यक्तिका भी ऐहिक जीवन सुखी नहीं हो सकता है। संबद्ध मानवसमष्टिका ऐहिक जीवन सुखपूर्ण बने, इसके लिये मानवव्यक्तिके जीवन में ऊपर बतलाई गयी अतरंग और बाह्य धार्मिकताको लानेकी जरूरत है। मानवजीवन में उक्त धार्मिकताको लानेके लिये ही भिन्न-भिन्न महापुरुषोंने अपने-अपने समयमें ऊपर बतलायी गयी हिन्दू, जैन आदि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया है अर्थात वर्तमानमें हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी, मस्लिम और ईसाई आदि जितनी संस्कृतियां पायी जाती हैं इन सबका उद्देश्य उन-उन संस्कृतियोंके उपासक मनुष्योंको पूर्वोक्त प्रकारसे धार्मिक बनाना ही है / लेकिन संस्कृतिको ही धर्म मान लेनेसे जब केवल भिन्न-भिन्न संस्कृतिकी उपासना मात्रसे मनुष्य धर्मात्मा माना जा सकता है तो उसे अपने जीवन में उक्त धार्मिकताके लानेकी आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। इसीका यह परिणाम है कि एक ओर तो प्रत्येक संस्कृति ढोंग, कई किस्मके अनर्थकारी विकार और रूढ़िवादसे परिपूर्ण होते हुए भी इन विकारोंको नष्ट करनेकी ओर उसके उपासकोंका यथायोग्य ध्यान नहीं जा रहा है और दूसरी ओर अपनेको धर्मात्मा तथा सच्ची और सर्वहितकारी संस्कृतिकी उपासक समष्टिका अंग मानते हुए भी उनमें (प्रत्येक संस्कृतिके उपासक व्यक्तियोंमें) मानवताको कुचलने वाली स्वार्थपूर्ण असीमित दुराकांक्षाएँ और दुष्प्रवृत्तियाँ वे-रोक-टोक बढ़ती ही जा रही हैं। इसलिये आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बातकी है कि प्रत्येक संस्कृतिको उपासक समष्टि और उस समष्टिका अंगभूत प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी संस्कृतिको धर्म न मानकर धर्मका साधन समझने लग जाय / इसका यह परिणाम होगा कि प्रत्येक संस्कृतिके उपासक समाज और इसका अंगभूत व्यक्ति अपनेको धर्मात्मा और अपनी संस्कृतिको सच्ची और उपयोगी सिद्ध करनेके लिये अपने जीवन में पूर्वोक्त प्रकारकी धार्मिकताको लानेका ही प्रयत्न करने लगेगा और जिस समाजका लक्ष्य इस ओर न होगा उसकी संस्कृति निश्चित ही केवल इतिहासके पत्रोंमें रह जायगी। मेरी मान्यताके अनुसार वर्तमान सभी संस्कृतियाँ मानवसमाजके लिये उपयोगी हैं / परन्तु जैन संस्कृतिको मैं उपयोगी होनेके साथ-साथ अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक भी मानता है। उसका तत्त्वज्ञान और उसका आचार अधिक-से-अधिक वास्तविकताको लिये हए है। इसलिये दूसरी संस्कृतियोंकी अपेक्षा जैन संस्कृति अधिक स्थायी और अधिक व्यापक बनायी जा सकती है। यदि इस विश्वयुद्ध के दौरानमें जैन समाज अपनी मनोवृत्तिका संतुलन बनाये रखता और दूसरे सामाजोंके साथ व्यापारमें चोरबाजारको स्थान नहीं देता तो जैन संस्कृति निश्चित ही अपने लायक स्थानपर खड़ी दिखाई देती / यह जैन संस्कृतिका उत्थान चाहने वालोंके लिये असीम दुःखका विषय है और सम्पूर्ण जैन समाजके लिये लज्जाका विषय है कि व्यापारी जैन समाजने जैन संस्कृतिको आज इस रूपमें कलंकित किया है। क्या यह आशा करना उचित न होगा कि जैन संस्कृतिको युगका धर्म (संस्कृति) बनाने के लिये जैन समाज ही पहले अपनेको युगका समाज बनायेगा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211776
Book TitleYugdharm Banne ka Adhikari Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size502 KB
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