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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ १९० प्रतीत होता है, क्योंकि अर्थाभाव में दैहिक माँगों (काम) की पूर्ति नहीं ही लाता है। इसी आशय को सामने रखते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा होती। दूसरी ओर, लोक के अर्थाभाव से पीड़ित होने पर धर्मव्यवस्था गया है कि 'धन' में प्रमत्त पुरुष का धन अर्थात् उस व्यक्ति का धन या नीति भी समाप्त हो जाती है। कहा ही गया है-भूखा कौन सा पाप जिसके लिए धन ही साध्य है न तो इस लोक में और न परलोक में ही नहीं करता? ३३ ऐसे आदमी की रक्षा कर सकता है। धन के असीम मोह से मूढ़ बना यदि साधक (व्यक्ति) की दृष्टि से विचार करें तो दैहिक मूल्य हुआ वह व्यक्ति, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग को जानते हुए भी (काम) ही प्रधान प्रतीत होता है। मनोदैहिक मूल्यों (इच्छा एवं काम) के मार्ग नहीं देखता, वैसे ही वह भी न्यायमार्ग या धर्ममार्ग को जानते हुए अभाव में न तो नीति-अनीति का प्रश्न खड़ा होता है और न आर्थिक भी उसे नहीं देख पाता। जैसे एक ही नगर को जाने वाले भिन्न-भिन्नः साधनों की ही कोई आवश्यकता होती है। दूसरे धर्मसाधन और मार्ग परस्पर भिन्न दिशाओं में स्थित होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं आध्यात्मिक प्रगति भी शरीर से सम्बन्धित है। कहा गया है-धर्मसाधन कहे जाते, उसी प्रकार परस्पर विरोधी पुरुषार्थ मोक्षाभिमुख होने पर के लिए शरीर ही प्राथमिक है।३४ दैहिक माँगों की पूर्ति के अभाव में असपत्न (अविरोधी) बन जाते हैं। यहीं उनमें एक मूल्यात्मक तारतम्य चित्त-शान्ति भी कैसे होगी और जिनका चित्त अशान्त है वह क्या स्पष्ट हो जाता है, जिसमें सर्वोच्च स्थान मोक्ष का है, उसके बाद धर्म आध्यात्मिक विकास करेगा? का स्थान है। धर्म के बाद काम और सबसे अन्त में अर्थ का स्थान इसी प्रकार जब हम साधनामार्ग पर सामाजिक सन्दर्भ में आता है। किन्तु अर्थपुरुषार्थ जब लोकोपकार के लिए होता है, तब विचार करते हैं, तो धर्म ही प्रधान प्रतीत होता है। धर्म ही सामाजिक उसका स्थान कामपुरुषार्थ से ऊपर होता है। पाश्चात्य विचारक अरबन व्यवस्था का आधार है। धर्म के अभाव में सामाजिक जीवन अस्त- ने मूल्य-निर्धारण के तीन नियम प्रस्तुत किये हैं-(१) साधनात्मक या व्यस्त हो जाता है और अस्त-व्यस्त सामाजिक जीवन में अर्थोत्पादन परत: मूल्यों की अपेक्षा साध्यात्मक या स्वत: मूल्य उच्चतर हैं, (२) एवं आध्यात्मिक साधना दोनों ही सम्भव नहीं होती। भोगों की समरसता अस्थायी या अल्पकालिक मूल्यों की अपेक्षा स्थायी एवं दीर्घकालिक समाप्त हो जाती है। मूल्य उच्चतर हैं और (३) असृजक मूल्यों की अपेक्षा सृजक मूल्य साध्य या आदेश की दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही प्रधान उच्चतर हैं।३६ प्रतीत होता है, क्योंकि सारे प्रयास जिसके लिए हैं, वह तो आध्यात्मिक यदि प्रथम नियम के आधार पर विचार करें, तो धन, पूर्णता की प्राप्ति ही है। संक्षेप में साधनात्मक दृष्टि से आर्थिक मूल्य सम्पत्ति, श्रम, आदि आर्थिक मूल्य जैविक, सामाजिक और धार्मिक (अर्थ,) जैविक दृष्टि से मनोदैहिक मूल्य (काम), सामाजिक दृष्टि से (काम और धर्म) मूल्यों की पूर्ति के साधनमात्र हैं, वे स्वत: साध्य नहीं नैतिक मूल्य (धर्म) और साध्यात्मक दृष्टि से आध्यात्मिक मूल्य (मोक्ष) हैं। भारतीय चिन्तन में धन की तीन गतियाँ मानी गयी हैं-(१) दान, (२) भोग और (३) नाश। वह दान के रूप में धर्मपुरुषार्थ का और लेकिन ये सभी मूल्य या पुरुषार्थ एक-दूसरे से स्वतन्त्र या भोग के रूप में कामपुरुषार्थ का साधन सिद्ध होता है। कामपुरुषार्थ निरपेक्ष होकर नहीं रह सकते। मोक्ष या आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति सामान्य रूप में स्वत: साध्य प्रतीत होता है, लेकिन विचारपूर्वक देखने के लिए धर्म आवश्यक है और धर्मसाधना के लिए शरीर आवश्यक पर वह भी स्वतः साध्य नहीं कहा जा सकता। प्रथमत: जैविक है, शरीर के निर्वाह के लिए शरीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति (काम) आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में जो भोग किये जाते हैं, वे स्वयं आवश्यक है। और उनकी पूर्ति के लिए साधन (अर्थ) जुटाना आवश्यक साध्य नहीं, वरन् जीवन या शरीर-रक्षण के साधनमात्र हैं। इन सबका है। इस प्रकार सभी परस्पर सापेक्ष हैं और सभी आवश्यक भी हैं। जैन साध्य स्वास्थ्य एवं जीवन है। हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए ग्रन्थ निशीथभाष्य में कहा गया है कि ज्ञानादि मोक्ष के साधन हैं और नहीं जीते हैं। यदि हम कामपुरुषार्थ को कला, दाम्पत्य, रति या स्नेह ज्ञानादि का साधन देह है और देह का साधन आहार है।३५ इस प्रकार के रूप में मानें तो वह भी आनन्द का एक साधन ही ठहरता है। इस चारों पुरुषार्थों का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया है, तथापि सभी का प्रकार कामपुरुषार्थ का भी स्वत: मूल्य सिद्ध नहीं होता। उसका जो भी मूल्य समान नहीं माना गया है। जैन विचारकों के अनुसार चारों स्थान हो सकता है वह मात्र उसके द्वारा व्यक्ति के आनन्द में की गयी पुरुषार्थों में एक साध्य-साधन भाव है जिसमें अर्थ मात्र साधन है और अभिवृद्धि पर निर्भर करता है। यदि अल्पकालिकता या स्थायित्व की मोक्ष मात्र साध्य है। काम अर्थ की अपेक्षा से साध्य और धर्म की दृष्टि से विचार करें तो कामपुरुषार्थ मोक्ष एवं धर्म की अपेक्षा अल्पकालिक अपेक्षा से साधन है। धर्म को अर्थ और काम का साध्य और मोक्ष का ही है। भारतीय विचारकों ने कामपुरुषार्थ को निम्न स्थान उसकी साधन माना गया है। जब साधन ही साध्य बन जाता है। तो वह दूसरे क्षणिकता के आधार पर ही दिया है। तीसरे अपने फल या परिणाम के के विरोध में खड़ा हो जाता है और जीवन के विकास को अवरुद्ध आधार पर भी काम-पुरुषार्थ निम्न स्थान पर ठहरता है, क्योंकि वह करता है। जैनागम साहित्य में मम्मन सेठ की कथा अर्थ को साध्य मान अपने पीछे दुष्पूर-तृष्णा को छोड़ जाता है। उससे उपलब्ध होने वाले लेने का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिससे प्रकट है कि जब 'धन' आनन्द की तुलना खुजली खुजाने से की गयी है, जिसकी फलनिष्पत्ति साध्य बन जाता है तो वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन में कष्ट क्षणिक सुख के बाद तीव्र वेदना में होती है। धर्मपुरुषार्थ सामाजिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211738
Book TitleMulya Darshan aur Purusharth Chatushtaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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