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________________ है आर २ मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय १८९ यह एक अन्त है। कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा बिना यज्ञ के जो भोग करता है, वह चोर है, तो उसका प्रमुख दृष्टिकोण अन्त है। इन दोनों अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है, कामपुरुषार्थ को धर्माभिमुख बनाने का ही है।२२।। मिथ्याधारणा बढ़ती है, व्यक्ति मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है।"१५ इस इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता की आधार पर कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में बुद्ध का दृष्टिकोण यही प्रतीत विचारधाराओं में चारों पुरुषार्थ स्वीकृत हैं, यद्यपि सभी ने इस बात पर होता है कि जो काम धर्म-अविरुद्ध है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति बल दिया है कि अर्थ और काम पुरुषार्थ को धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए या चित्त की विकलता समाप्त होती है, वह काम आचरणीय है। और धर्म को सदैव ही मोक्षाभिमुख होना चाहिए। वस्तुत: यह दृष्टिकोण इसके विपरीत धर्मविरुद्ध मानसिक अशान्तिकारक काम या विषयभोग न केवल जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं का है, वरन् समग्र अनाचरणीय है। भारतीय चिन्तन की इस सन्दर्भ में यही दृष्टि है। मनु कहते हैं कि धर्मबुद्ध की दृष्टि में भी जैन विचार के समान धर्मपुरुषार्थ निर्वाण विहीन अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए।२३ महाभारत में भी कहा या मोक्षपुरुषार्थ का साधन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, “भिक्षुओं! है कि जो अर्थ और काम धर्म विरोधी हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए।२४ मैंने बेड़े की भाँति पार जाने के लिए (निर्वाणलाभ के लिए) तुम्हें धर्म कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में और वात्स्यायन अपने कामसूत्र में लिखते का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं।"१६ अर्थात् निर्वाण की हैं कि धर्म से अविरोध में रहे हुए काम का ही सेवन करना चाहए।२५ दिशा में ले जानेवाला धर्म ही आचरणीय है। बुद्ध की दृष्टि में जो धर्म इस प्रकार भारतीय चिन्तकों का प्रयास यही रहा है कि चारों निर्वाण की दिशा में नहीं ले जाता, जिससे निर्वाणलाभ में बाधा आती पुरुषार्थों को इस प्रकार संयोजित किया जाये कि वे परस्पर सापेक्ष हो वह त्याग देने योग्य है। इतना ही नहीं, बुद्ध धर्म को एक साधन के होकर अविरोध की अवस्था में रहे। इस हेतु उन्होंने उनका पारस्परिक रूप में स्वीकार करते हैं और साध्य की उपलब्धि के लिए उसे भी छोड़ सम्बन्ध निश्चित करने का प्रयास भी किया। कौन सा पुरुषार्थ सर्वोच्च देने का सन्देश देते हैं। उनकी दृष्टि में परम मूल्य तो निर्वाण ही है। मूल्यवाला है इस सम्बन्ध में महाभारत में गहराई से विचार किया गया है और इसके फलस्वरूप विभिन्न दृष्टिकोण सामने भी आयेगीता में पुरुषार्थ चतुष्टय १. अर्थ ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि धर्म और काम दोनों पुरुषार्थ चतुष्टय के सम्बन्ध में गीता का दृष्टिकोण जैन अर्थ के होने पर उपलब्ध होते हैं। धन के अभाव में न तो काम-भोग परम्परा से भिन्न नहीं है। गीता की दृष्टि में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। ही प्राप्त होते हैं, और न दान-पुण्यादि रूप धर्म ही किया जा सकता वही परम मूल्य है। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी धृति को है।२६ कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया गीताकार ने राजसी कहा है। १७ लेकिन यह मानना भी भ्रान्तिपूर्ण होगा है।२७ कि गीता में इन पुरुषार्थों का कोई स्थान नही है। गीताकार जब काम की २. काम ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि विषयों की इच्छा या निन्दा करता है,१८ धर्म को छोड़ने की बात करता है,१९ तो मोक्षपुरुषार्थ काम के अभाव में न तो कोई धन प्राप्त करना चाहता है, और न कोई या परमात्मा की प्राप्ति की अपेंक्षा से ही। मोक्ष ही परमाराध्य है, धर्म, धर्म करना चाहता है। काम ही अर्थ और धर्म से श्रेष्ठ है।२८ जैसे दही अर्थ और काम का मोक्ष के निमित्त परित्याग किया जा सकता है। का सार मक्खन है, वैसे ही अर्थ और धर्म का सार काम हैं।२९। गीताकार की दृष्टि में भी यदि धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के अविरोधी ३. अर्थ, काम और धर्म तीनों ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ हैं, तीनों हैं तो वे ग्राह्य हैं। गीताकार की मान्यता भी यही प्रतीत होती है कि अर्थ का समान रूप से सेवन करना चाहिए। जो एक का सेवन करता है वह और काम को धर्माधीन होना चाहिए और धर्म को मोक्षाभिमुख होना अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है वह मध्यम है और जो इन तीनों चाहिए। धर्मयुक्त, यज्ञ (त्याग) पूर्वक एवं वर्णानुसार किया गया में समान रूप से अनुरक्त है, वही मनुष्य उत्तम है।३०। आजीविकोपार्जन गीता के अनुसार विहित ही है। यद्यपि धन की चिन्ता ४. धर्म ही श्रेष्ठ गुण (पुरुषार्थ) है, अर्थ मध्यम है और काम में डूबे रहनेवाले और धन का तथा धन के द्वारा किये गये दान-पुण्यादि सबकी अपेक्षा निम्न है। क्योंकि धर्म से ही मोक्ष की उपलब्धि होती है, का अभिमान करनेवाले को गीता में अज्ञानी कहा गया है२० तथापि धर्म पर ही लोक-व्यवस्था आधारित है और धर्म में ही अर्थ समाहित ईसका तात्पर्य यही है कि न तो धन को एकमात्र साध्य बना लेना है।३१ 'चाहिए और न उसका तथा उसके द्वारा किये गये सत्कार्यों का ५. मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। मोक्ष के उपाय के रूप में ज्ञान अभिमान ही करना चाहिए। इसी प्रकार कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में गीता और अनासक्ति यही परम कल्याणकारक है।३२ का दृष्टिकोण यही है कि उसे धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्राणियों में धर्म-अविरुद्ध काम मैं हूँ।२१ सभी भोगों से चारों पुरुषार्थों की तुलना एवं क्रमनिर्धारण विमुख होने की अपेक्षा गीताकार की दृष्टि में यही उचित है कि उनमें पुरुषार्थ चतुष्टय के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभिन्न दृष्टिकोण आसक्ति का त्याग किया जाये। वस्तुत: यह दृष्टिकोण भोगों को मोक्ष के परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन सापेक्षिक दृष्टि से इनमें विरोध अविरोध में रखने का प्रयास है। इसी प्रकार गीता जब यह कहती है कि नहीं रह जाता है। साधन की दृष्टि से विचार करने पर अर्थ ही प्रधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211738
Book TitleMulya Darshan aur Purusharth Chatushtaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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