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सन्देश दिया। इस धारणा का कि राजा ईश्वर का अवतार है, संस्कृत देवताओं की भाषा है, और उसमें लिखे कुछ ग्रन्थ ईश्वरीय है, खण्डन कर उन्होंने कहा कि कोई भी ग्रन्थ ईश्वरीय नहीं है, वे मनुष्य की ही कृति हैं, मनुष्य पहले आया और ग्रन्थ बाद में राजा देव नहीं, न ही वह ईश्वर का अवतार हैं । महावीर ने कहा कि "राजा मनुष्य है, उसे देवता मत कहो, एक सम्पन्न मनुष्य कहो ।"
देवों पर मानव की महानता
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इस प्रकार तीर्थंकर महावीर ने समकालीन मानव को मानव माना, तथा स्वयं को भी मानव ही कहा । यही कारण है कि अन्य धर्मों की तरह जैन धर्म तीर्थकरों के साथ ईश्वरीय अवतार की धारणा नहीं जुड़ी है। वे तप व संयम द्वारा कर्मों को क्षय करके, आत्मा को साधना से पहचान कर, आत्मस्वभाव के रमण करने की प्रक्रिया से तीर्थ ंकर बने। उन्होंने चरित्र की आवश्यकता तथा पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के पालन पर बल दिया । उन्होंने स्पष्ट कहा कि कोई ईश्वरीय अवतार नहीं, सभी प्राणी समान आत्मा को ग्रहण करते हैं, देव मानव से उच्च नहीं, वरन् उनके अधीन हैं, जैन बाडमय में ऐसे अनेको उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें देवों द्वारा महामानवों की शरण व स्वागत सत्कार में उपस्थित होने के प्रसंग हैं, जबकि ऐसा एक भी उदाहरण नहीं जिसमें मोक्ष प्राप्ति हेतु ईश्वर या देवताओं या उनके अवतारों की पूजा अर्चना का मार्ग अपनाया हो । उनने अनुसार प्रत्येक मानव सत्कर्मो के द्वारा दुष्कर्मों को क्षय कर आत्मसाधना के द्वारा ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। तीर्थंकर महावीर करुणा और संवेदना के प्रतीक थे । उन्होंने कहा कि मनुष्य की सत्ता सर्वोच्च है। प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, उसमें अनन्त शक्ति विद्यमान है । इस प्रकार तीर्थंकर महावीर ने देवों पर मानव की महानता सिद्ध की ।
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मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता :
तीर्थंकर महावीर ने भाग्यवाद का खण्डन कर कहा कि मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का विधाता है, कोई अन्य शक्ति न तो उसके भाग्य को निर्धारित ही करती है, न ही उसके कर्मों को संचालित । मनुष्य भाग्य या कर्म के यंत्र का पुअ नहीं है, भाग्य मनुष्य को नहीं बनाता, मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माण करता है, वह स्वयं ही अपना भाग्य विधाता है। वह स्वयं ही अपने सुख दुःख का कर्त्ता है ।
पुरुषार्थ पर बल
सुख प्राप्ति के लिए तीर्थंकर महावीर ने पुरुषार्थ का सन्देश दे सहजता और स्वाभाविकता पर बल दिया उन्होंने कहा कि तुम सुख कहाँ ढूढ़ते हो, वह तो तुममें ही स्थित है, सुख बाहर नहीं भीतर है । जिस राग द्वेष, अपने पराए में तुम सुख दुःख की कल्पना कर रहे हो, परिग्रह समृद्धि में सुख खोज रहे हो, वह सुख कहाँ है ? यहाँ तो दुःख का अपरम्पार पारावार लहरा रहा है। "सुख अन्त में स्थित है, जिसे पुरुषार्थ से ही प्राप्त किया जा सकता है ।"
कर्मवाद :
यही कारण है कि अपने जीवन दर्शन में तीर्थ कर महावीर ने कर्मवाद के मूलमंत्र का प्रयोग किया । उन्होंने कहा कि "सिर मुड़ाने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता, ॐ रटने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, वनवास भोगने से कोई मुनि नहीं वन जाता, बल्कि समता से ही व्यक्ति श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ही ब्राह्मण, ज्ञान से ही मुनि तथा तप से ही तपस्वी । आदमी क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य, शूद्र सिर्फ अपने कार्य से बनता है ।"
मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान है :
तीर्थकर महावीर ने कर्मवाद की धारणा दे कर यह कहा कि "मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता
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