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घटक थी । ब्राह्मण जन्मना उच्च एवं शूद्र जन्मना तुच्छ, क्रांति का सत्रपात किया। दलितों एवं शोषितों के प्रति इस मान्यता पर आधारित व्यवस्था ने मानव-मानव में अन्याय से व्यथित महावीर ने उनके उद्धार को अपना बहुत बड़ा भेद पैदा कर दिया था। महावीर ने इस एक प्रमुख लक्ष्य बनाया। वे जहाँ भी गए, उन्होंने ऐसे व्यवस्था का तर्कसंगत खण्डन कर तत्कालीन समाज लोगों को प्राथमिकता दी। उन्होंने दृढ़ संकल्प हो, शूद्रों को आन्दोलित कर दिया।
एवं एवं नारी जाति के लोगों को अपने धर्म में दीक्षित
किया। हरिकेशी चांडाल, सद्दालपुत्त कुम्भकार और तीर्थ कर महावीर ने सभी वर्ण और जाति के लोगों दासी चन्दवाला (सी) के लिए उन्होंने धर्म के द्वार को समान मानव कहा । वर्तमान महावीर स्वयं जन्म- खोल दिए । विहार करते समय एक बार पोलासपुर जात जैन नहीं थे। जन्म से वे क्षत्रिय वर्ण के कुल में गाँव के भ्रमण में दौरान सकड़ाल कुम्हार की प्रार्थना पैदा हए थे । उन्होंने आत्मविजय द्वारा द्वष व मोह पर वे सहर्ष उसके यहाँ ठहरे । इस प्रकार दलितों एवं का नाश कर आत्मा को जीता, इस कारण वे जिन शोषितों को समाज में समान एवं सम्मानपूर्ण स्थान कहलाए। उनके समवशरण के द्वार न केवल मानव दिलाने के लिए कटिबद्ध वर्द्धमान महावीर ने इस मात्र को वरन प्राणीमात्र को खुले थे। उसमें सभी दिशा में नवीन क्रांति को जन्म दे. उनके लिए आध्यामिलजुलकर बैठते थे। उन्होंने बारह वर्ष की कठोर त्मिक साधना के द्वार खोल दिए । तपस्या के पश्चात निरंतर तीस वर्ष तक भ्रमण कर ज्ञानियों, अल्पज्ञों, उच्च एवं दलितों तथा छत अवतारवाद का खण्डन : एवम् अछतों को जैन धर्म में दीक्षित कर समाज में
तीर्थकर महावीर ने पूर्व प्रचलित इस धारणा का, प्रचलित अन्याय, अत्याचार, कुप्रथा एवं दुराचार
कि-"सष्टि निर्माता ईश्वर ही सबका भाग्य विधाता के विरुद्ध आवाज उठायी और सन्मार्ग दिखाया । उनके संघ में भी सभी वर्ग व जाति के लोग थे, उनके
- है" खण्डन किया । उनसे पूर्व धर्मगुरू इस धारणा पर
ही वल देते थे, उन्होंने, इसकी व्याख्याओं में इसे और गणधर इन्द्रभूति आदि ब्राह्मण कुलोत्पन्न तथा अनेकों
जटिल बनाते हुए "राजा को ईश्वर का अवतार" तथा श्रावक-श्राविकाएं वैश्य कुल की थीं। उनके शिष्यों में
"संस्कृत को देवताओं की भाषा" भी निरूपति कर सकड़ाल कुम्हार, अर्जुन माली, कंसा डाकू, अनुरक्त
दिया, और यह विश्वास जाग्रत एवं पैदा किया कि भद्रा नामक राज कर्मचारी की बेटी तथा पापी और नीच समझे जाने वाले लोग भी थे।
मनुष्य का कल्याण इस सृष्टि निर्माता ईश्वर की पूजा
अर्चना से ही सम्भव हैं। राजा, पुरोहित एव पंडित दलितोद्धार :
स्वयं इस ईश्वर के प्रतीक एवं मध्यस्थ बन गए और
उन्होंने ईश्वर की पूजा अर्चना को भी जाति तथा वर्ण प्राणीमात्र के मध्य समानता स्थापना का विचार विशेष का ही अधिकार घोषित कर दिया । इस सारी देकर उन्होंने मानव समाज में व्याप्त भय, कायरता, व्यवस्था ने समाज को बुरी तरह जकड़ रखा था। दुराग्रह पाखण्ड एवं अन्धविश्वास को दूर किया तथा महावीर ने इन बन्धनों को तोड़ा और कहा कि सष्टि पतितों एवं दोनों को गले लगाया और धार्मिक जड़ता का कोई निर्माता नहीं है, वह अनादि और अनंत है। तथा अन्ध श्रद्धा को तोड़कर जातिभेद व सामाजिक यह दुनियाँ किसी एक ईश्वर के भरोसे नहीं चल रही वैषम्य के विरुद्ध लोकमत जाग्रत किया तथा सुदर है। उन्होंने बुद्धिवादी कर्मवाद की धारणा प्रचलित क्षेत्रों में अपने उपदेश दे, जन जागरण कर सामाजिक कर हर व्यक्ति को लोकभाषा में मोक्षमार्ग ढूढ़ने का
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