________________ दंपति हैं जिनमें पुरुष माला तथा देवियाँ वीणा लिये हैं। चँवरधारियों के स्थानपर सनालकमल हैं। इनके लेख निम्न है : जी-३२० (1) ...''परिमारायः श्रीवासवचन्द्र: प्रणमति / जी-३२१ (2) ..."जिन प्रणमति नित्यं / अर्थात् वासवचन्द्र जिनकी वन्दना करता है / जी-३२२ और ६६-२७३-यह चौबीसी (107 सेमी०४७० सेमी०) भरे पत्थरकी बनी है / इसके टुकड़ेका नं० 66-273 है / इसके मूलनायक ऋषभ हैं जो खड़े हैं। इनका शिर खण्डित है। मूल मूर्ति वस्त्रहीन है। सबसे नीचे बाँयी ओर ध्यानस्थ जिन तथा दांयी ओर नरवाहना चक्रेश्वरी प्रतिष्ठित है। यहाँपर यक्षीका दाँयी तरफ होना विशेष महत्त्वपूर्ण है। पीठिकापर चक्र तथा दोनों ओर सिंह बने हैं जो चरण चौकीको वाहित करते हुये बने हैं। एक सर्प फणके नीचे एक जिन दिगम्बर खड़े हैं, शेष सभी बैठे हैं। यहाँ सम्भवतया त्रिछत्रादि रहे हों किन्तु इस समय अप्राप्य ही हैं। दोनों ओरके चँवरधारी त्रि मद्रामें खड़े हैं / इनके वस्त्राभषण, केश, किरीट आदि विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य हैं। इन आकृतियोंके मुख इनके विनय भावको दर्शित करनेमें बहुत ही सक्षम हैं जिससे मूर्तिकारको निपुणताकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इस निदर्शनपर लेख नहीं है किन्तु उक्त मूर्तियोंके आधारपर यह प्रतिहार कालीन प्रतीत होती है। इस प्रकार जी-३०४ से जी-३२३ तक जैन प्रतिमाएँ है। बीचकी जी-३११.३१४.३१९ के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सम्भव है, इनके धारक अंक अब बदल गये हों या ये अन्य संग्रहालयोंको दी गई हों। ये सारी मूर्तियाँ सम्भवतः संवत् 1103 से 1324 की हैं। कुछको छोड़कर सभी काले या श्वेत पत्थरसे बनी हैं। ये चन्देल एवं प्रतिहारयुगीन हैं। इन्हें जिन शिलाओंसे बनाया गया है, वह अत्यन्त कठोर शीतल, स्निग्ध, सुस्वर एवं सुगन्धिसे युक्त है / वसुनन्दि द्वारा विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार शीर्षक ग्रन्थके शिलानयण (चयन) अध्यायमें देवविग्रहोंके निर्माणके लिए इसी प्रकारकी शिलाके चुने जानेका वर्णन है / 2 इसका उल्लेख अन्यत्र भी है / सम्पूर्ण संग्रहमें ये ही कुछ मूत्तियाँ हैं जिन्हें किसी धातु (सिक्का, चाभी) या केवल उँगलीसे पीटनेपर धातुका-सा स्वर देती हैं। यह उनकी अपनी विशेषता है जो दर्शकको अचरजमें डाल देती है। उसे भ्रम हो जाता है और पूछता है कि क्या ये धातुकी मूर्तियाँ तो नहीं हैं ? किन्तु प्रस्तरविदोंसे विदित हुआ कि यह प्रकृतिकी स्वाभाविक प्रक्रिया है। कभी-कभी जब पत्थर बननेकी स्थितिमें होता है, तभी यह गुण (स्वर) स्वयं उसमें आ जाता है। ____ अस्तु, एक ओर ये मूर्तियाँ मध्यकालीन जैन मूर्तियोंके अध्ययनको पूर्ण करानेमें अपरिहार्य हैं, वहीं दूसरी ओर ये ध्वनिके कारण दर्शकोंके मनको झंकृत भी करती रहती हैं। fo ज्योतिप्रसाद; भार० इति० एक दष्टि, 50195: वासवचन्द्र कमदचन्द्र आदि अनेक निग्रन्थ दिगम्बर साध थे। खजराहोके धंग चन्देलके समयके एक जैन शिलालेखमें जिन वासवचन्दका उल्लेख है, वे इस लेखके वासवचन्द्रसे अभिन्न प्रतीत होते हैं / यदि ऐसा है, तो यह प्रतिमा १०वीं शतीके मध्यकालकी स्वतः सिद्ध होती है / 2. प्रतिष्ठासारोद्धार, अ०-३ श्लोक 78, भग- नेपिनाथ, जैन मन्दिर, चौकके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित हस्तलिखित पोथी, जिसे श्रीनन्दकिशोर जैनके सौजन्यसे मैं देख सका, एतदर्थ में उनका हृदयसे आभार स्वीकार करता हूँ। 3. डॉ० बालचन्द्र जैन, जैन प्रतिमा विज्ञान, पृ० 13 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org