Book Title: Mahobaki Jain Pratimaye
Author(s): Shailendra Rastogi
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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________________ महोबाकी जैन प्रतिमाएँ शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी राष्ट्रीय संग्रहालय लखनऊ, उ० प्र० प्राचीन 'महोत्सवनगर' आजको जनभाषामें 'महोबा' के नामसे प्रसिद्ध है। यू तो इस स्थलीका पूरा इतिहास ही गौरवमय रहा है, परन्तु चन्देलोंके समयमें तो यही प्रशासकीय राजधानी था। ११८२ में यहीं पृथ्वीराज चौहानने अपनी विजय पताका फहरायी थी । १२०३ में कुतुबुद्दीन ऐबकने इसे जीत लिया। वीर काव्योंमें जनमानसके कंठहार आल्हाऊदलका नाम आज भी लोग बड़े जोशमें लेते दीख पड़ते हैं। महोबासे ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध कला कृतियाँ प्राप्त हुई हैं तथा अब भी वहाँ जमीनमें दबी पड़ी हैं । महोबा उत्तरप्रदेशके हम्मीरपुर जनपदमें अवस्थित है। कला जगतमें महोबाका अनुपम स्थान है। यहींसे उपलब्ध सौन्दर्य एवं कलासे परिपूर्ण सारे विश्वको विमग्ध कर लेनेवाली 'सिंहनाद अवलोकितेश्वर'की कीर्तिवर्मनके समयकी बनी प्रतिमासे कौन इतिहासज्ञ, पुराविद् एवं कला समीक्षक परिचित न होगा? यह कलारत्न राज्य संग्रहालय लखनऊके संग्रहकी अमूल्य निधि है। महोबासे जैनमन्दिरों एवं कलापूर्ण मूर्तियों के अनेक अवशेष प्राप्त हुये हैं । चन्देल कालमें यह स्थान एक अच्छा जैन केन्द्र रहा है। यहीसे संग्रहमें आयी १९०४ एवं १९३५ की जैन प्रतिमायें लखनऊ संग्रहालयको भेंटमें मिली थी जिसमें तदानीन्तन जिलाधिकारियों तथा भारतीय पुरातत्त्व विभागके महानिदेशकोंका परामर्श सहायक रहा है। इन जैन प्रतिमाओंका विवेचन यहाँ किया जा रहा है। वैसे तो यहाँके संग्रहमें मथुराकी जैन मूर्तियाँ भी पर्याप्त हैं, किन्तु उनमें अधिकांश कुषाण एवं गुप्तकालीन है। ये प्रारम्भिक स्थितिका ज्ञान कराती हैं। मध्यकालीन जैन प्रतिमाओंका परिचय महोबाकी इन मूर्तियोंके बिना अपूर्ण ही है । यहाँकी शान्तिनाथ तीर्थकरकी दोनों मूर्तियाँ यहींकी हैं। अम्बिका, पद्मावती, यक्षियोंकी प्रतिमायें भी मात्र यहींकी हैं। महोबाकी सन १९०४ में यहाँ आयी जैन मूर्तियाँ जे-८२३से जे-८४६ तक हैं। ये सभी काले चमकीले पत्थरकी बनी हैं कोई भी सम्पूर्ण नहीं हैं। इनमें छह जिन मूर्तियोंकी चरण चौकियोंके अभिलेख प्रकाशित हैं । इन लेखोंमें कुद्दकपुर एवं गोलापुर नामक स्थान, साधु रत्नपाल, त्रिभुवनपाल तथा रूपकार रामदेव और लषनके नाम उल्लेखनीय है । ये मूर्तियाँ भगवान ऋषभ, पद्मप्रभु, मुनिसुव्रत व नेमिनाथकी हैं । एक मति जे-८२८ पर जिननाथ भी उत्कीर्ण पाते हैं। वर्ष १९३५ में जी-३०४ से जी-३२३ तककी जिन प्रतिमायें इस संग्रहालयमें आयी हैं। इनमेंसे कूछके सन्दर्भ' को छोड़कर यहीं सर्व प्रथम प्रकाशित हो रही १. दीक्षित, डॉ० रामकुमार; ५०३२ । २. राष्ट्रीय संग्रहालय, लखनऊ, संख्यक-ओ-२२४ । ३. भगवान महावीर स्मृतिग्रन्थ, उ० प्र०, लखनऊ, १९७५, पृ० २३ । ४. आकिला० सर्वे०, ब्लूम, २१, १९०३-४, नार्दर्न सकिल, पृ०७४ । ५. आकिला० सर्वे रिपो०, १९३६-३९, पृ० ९२, चक्रवर्ती एन० पी० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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