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६. चैत्यों को माम्यता देकर उनका सम्मान एवं सहायता करना । ७. अरहंतों की सुरक्षा एवं बचाव करना तथा उनकी सहायता __ करना।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय नागरिकता केवल कुलीन क्षत्रियों तक सीमित थी । प्रत्येक गणतन्त्र की अपनी अलग सर्वोच्च जनसभा होती थी जिसे "संथागार" कहते थे। जनसभा में विभिन्न गुट सत्ता के लिये संघर्षरत रहते थे। जनसभा का कार्य गणपूर्ति होने पर प्रारम्भ किया जाता था । जनसभा के प्रस्ताव नियमानुसार ही प्रस्तुत किये जा सकते थे। मतदान कभी गुप्त रूप से, कभी कानाफूसी से, और कभी प्रत्यक्ष रूप से हुवा करता था । जनसभा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती थी और उसकी सदस्य संख्या, राज्य की जनसंख्या एवं उनकी परम्परा पर निर्भर करती थी । गणतन्त्रों की न्याय प्रणाली प्रशंसनीय थी एवं नागरिक स्वतन्त्रता की पूर्ण रक्षा की जाती थी। यहां की न्यायपालिका का लक्ष्य 'निर्दोषता" का पता लगाना होता था जबकि तिब्बत में 'अपराधी के अपराध' का पता लगाना । सामाजिक परिस्थितियाँ
उस काल में क्षत्रियों का समाज में उच्च स्थान था लेकिन बौद्ध साहित्य में इस तथ्य को कहीं-कहीं नकारा है। ब्राह्मणों का प्रभाव घट रहा था और अनेकों ने शिकार, सुथारी और सारथी जैसे हीन समझे जाने वाले धंधों को अपना लिया था। लेकिन ब्राह्मण साहित्य में इसके विपरीत उल्लेख मिलते हैं । वेश्यों के व्यापार में भी एकरूपता नहीं थी । महावीर के पूर्व शूद्रों की स्थिति दयनीय थी, महावीर ने उनकी स्थिति सुधारने का अथक प्रयत्न किया। निम्न मानी जाने वाली जातियों में चाण्डाल, वेण, निशाद, रथकार एवं पुसुक प्रमुख थी। आध्यत्मिक क्षेत्र में अछूतों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था और एक चाण्डाल हरिकेशबल ने साधु धर्म स्वीकार किया था। मिश्रित जातियों का भी इस काल में उदय हुवा ।
उन दिनों मे दास प्रथा प्रचलित थी एवं महावीर की पहली आर्या राजकुमारी चन्दना को भी दासी बनना पड़ा था । सन्यास आश्रम वानप्रस्थाश्रम से बिल्कुल पृथक हो गया था । संयुक्त परिवार प्रथा अब काफी लोकप्रिय हो गई थी और ऐसे परिवारों के सदस्यों के आपसी संबंध मधुर एवं स्नेहपूर्ण थे। कहींकहीं आपसी कलह के उदाहरण भी मिलते हैं। वाणिज्य और व्यापार में आशातीत उन्नति होने से परिवार के सदस्यों में स्वतन्त्र रूप से धनोपार्जन की वत्ति के कारण “संपत्ति के अधिकार" की धारणा बनने लगी।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस काल में ब्रह्म, प्रजापत्य, असुर, गंधर्व और राक्षस विवाह पद्धतियाँ प्रचलित थीं। स्वयंबर भी होते थे। विवाह संबंध में गोत्र का महत्व बढ़ने लगा था। भाई-बहिन के आपस में विवाह के उदाहरण मिलते हैं। शाक्यों में बहिनों से विवाह होता है। स्वयंवर भी होते थे ।
राजकुमारी निववुई इसका उदाहरण है। लिच्छिक्यिों में नजदीक के संबंधियों में विवाह होते थे । ममेरे भाई-बहिनों में विवाह होते थे। महावीर के बड़े भाई नंदीवर्धन का जेष्ठा के साथ विवाह इसका उदाहरण है । यदाकदा अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होते थे । वधू की विवाह के समय उम्र सामान्यतः सोलह वर्ष की होती थी।
पुरुष अपनी स्त्री की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह कर सकता था, परन्तु विधवा विवाह के सम्बन्ध में विरोधी जानकारी मिलती है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में विवाह विच्छेद होने पर स्त्री और पुरुष पुनः विवाह कर सकते थे। एक पत्नी प्रथा साधारणतः प्रचलित थी। धनीवर्ग बहुपत्नियां रखते थे । नगरीय जीवन में गणिकाओं का महत्व था वे संगीत, गान, नृत्य आदि की संरक्षिका होती थी।
साहित्य एवं पुरातत्व दोनों सूत्रों से विशेष कर तेर और नवासा की खुदाई से यह ज्ञात होता है कि गेहं और दालें खाद्य की मुख्य वस्तुएं थीं । उस काल के खाद्य पदार्थों में सतु, कुमासा, पूबा, खाजा, तिलकूटा तथा दूध एवं दूध की बनी हुई वस्तुएं जैसे दही, मक्खन, घी आदि का प्रचुर मात्रा में उपयोग होता था। तरकारियों में ककड़ी, कद्, लोकी आदि और फलों में आम, जामुन आदि लोकप्रिय थे। विविध स्थानों से खुदाई में प्राप्त हड्डियों से प्रतीत होता है कि मांसभक्षण किया जाता था। महावीर मांसाहार के अत्यन्त विरुद्ध थे। उन्होंने शाकाहार का प्रचार कर अनेकों मांसहारियों को शाकाहारी बनाया, शराब का प्रचलन था किन्तु धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति इससे परहेज करते थे।
जन साधारण के या पहिनने के वस्त्रों में अन्तरवासक उतरासंग, उसानिसा होते थे । स्त्री और पुरुष दोनों कांचुक धारण करते थे । स्त्रियां साड़ी पहनती थी। रुई, ऊन, सन, ताड़पत्र, रेशम, पटुआ आदि के रेशों के कपड़े बनाये जाते थे। कपड़े को सीने व टांके लगाने का रिवाज था । साधु-साध्वियां तथा विशिष्ट पुरुषों के पहनने के वस्त्र विशेष प्रकार के होते थे। स्त्रियों और पुरुष दोनों सस्ते या मंहगे आभूषण पहिनते थे। आभूषणों में अंगुठियां, कर्णफूल एवं गले के कंठे काफी लोकप्रिय थे । तत्कालीन साहित्य में सौन्दर्य प्रसाधनों एवं शृंगार सामग्रियों का प्रचुर विवरण मिलता है । जैन एवं बौद्ध साहित्य में गृह सज्जा के लिये विभिन्न प्रकार की कुर्सियों, पंलगों आदि का विवरण मिलता है । उन दिनों उपयोग में आने वाले मिट्टी एवं धातुओं के बने बर्तन विभिन्न स्थानों से पुरातत्वीय खुदाई में प्राप्त हुवे हैं। उत्तर के काले चमकीले पात्र इस युग की अनोखी देन हैं ।।
लोग उत्सवों में सम्मिलित होते थे। इन्हें “समाज्जा" कहते थे। शालभंजिका उत्सव अत्यन्त लोकप्रिय था। अन्य त्यौहारों में कोमुदी और हाथी-मंगल प्रसिद्ध थे । त्योहारों एवं उत्सवों के अतिरिक्त मनोरंजन के लिये बगीचे में भ्रमण करते थे और संगीत सुनते थे ।
बी. नि. सं. २५०३
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