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अन्य योगसाधनाएं और महर्षि अरविन्द की सर्वांग योगसाधना | १८३
लिए क्रमशः तीन सोपानक्रम-अभ्यास-वैराग्य, क्रियायोग तथा अष्टांगयोग अपनाये गये हैं। उत्तम साधकों की कोटि में वे योगी पाते हैं जिन्होंने पूर्व के कई जन्मों में योगाभ्यास प्रारंभ कर पांच बहिरंग साधन सिद्ध कर लिए हैं। इस कोटि में परमहंस प्रादि संन्यासी और जड़ भरत आदि उत्कृष्ट साधक आते हैं। वे योगी मध्यम कोटि में आते हैं जिन्होंने वानप्रस्थी रहकर इस जीवन में योगसाधना में अहनिश लीन रहना ही अपना ध्येय बना लिया है। इन्हीं के लिए महर्षि पतंजलि ने तप, स्वाध्याय और ईश्वर
धान का सोपानक्रम विहित किया है। अत्यन्त चंचल-स्वभाव वाले गृहस्थाश्रमियों के लिए उन्होंने अष्टांग-योग की साधना मान्य की है। क्योंकि विषय-वासनाओं से जर्जर शरीर और उच्छखल प्रवृत्तियों में रमने वाला अत्यधिक चित्त लेकर ये मन्द साधक अभ्यास-वैराग्य जैसे उत्कृष्ट साधन तथा क्रियायोग जैसे दुःसाध्य उपायों को सहज ही क्रियात्मक रूप नहीं दे पाते । “अष्टांगयोग मार्ग का अनुसरण करने वाले मन्द साधकों को उत्तम और मध्यम साधकों का अनुगमन नहीं करना पड़ता, क्योंकि इसी में प्रथम और द्वितीय सोपानक्रम अन्तर्भावित हो जाते हैं। यही मुख्य मार्ग है। जबकि मध्यम साधकों को क्रियायोग की सिद्धि के पश्चात् उत्तम साधकों के 'अभ्यास-वैराग्य' सोपान क्रम का अनुसरण करना आवश्यक है।" [योगवार्तिक पृ० २४७, तत्त्ववैशारदी योगसूत्र २।२९ पर]
राजयोग के दो प्रधान उद्देश्य हैं-स्वराज्यसिद्धि तथा साम्राज्यसिद्धि । साधारण जीवन में मानव इन्द्रियों का दास बना स्थूल शरीर से चिपटा रहता है। इन्द्रियों से भी परे कोई मनोमय लोक है, इस बात का ध्यान जरा भी उसे नहीं रहता। राजयोग अपने बहिरंग साधनों के द्वारा इन्द्रियों को बाहरी विषयों से मोड़ कर अन्तर्मुखी बनाकर चित्त को निर्मल, निर्द्वन्द्व, सर्वथा विचारशून्य, निश्चल बनाकर अन्तःचैतन्य का द्वार खोल देता है। इस समय हमारा ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले ज्ञान से ही प्राबद्ध नहीं रहता, वरन् ज्ञान का एक गहन-गम्भीर स्रोत हमारे अन्तस् में प्रस्फुरित हो पड़ता है और वस्तुतत्त्व की आभ्यन्तरिक सत्ता अपने आप उन्मीलित हो जाती है। जीव इसी समय अपने आध्यात्मिक स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसी को स्वराज्य-सिद्धि कहा जाता है। स्वराज्य-सिद्धि के उपरान्त साधक केवल अन्तर्जगत में ही नहीं रम जाता किन्तु समाधि-अवस्था की उस केन्द्रीभूत महान् चित-शक्ति के द्वारा वह बाह्य जगत् को भी वशीभूत करने में समर्थ हो जाता है। उसका संगठन, नियंत्रण तथा परिचालन कर सकता है। इसी को साम्राज्यसिद्धि कहते हैं। प्राचीनकाल में साधकगण साम्राज्य-सिद्धि के बिना स्वराज्य-सिद्धि को अपर्ण मानते थे। किन्त प्राजकल स्वराज-सिद्धि को ही साधक अत्यधिक महत्त्व देते हैं और इसको उपलब्ध करने के पश्चात् साम्राज्य-सिद्धि की परवा नहीं करते। सर्वांगयोग में दोनों की सिद्धि अभीष्ट है।
यह सही है कि राजयोग साधक को देह और प्राण से ऊँचा उठाकर मानसिक क्षेत्र में पर्णता प्रदान करता है और वास्तविक आध्यात्मिक जीवन का रसास्वादन कराता है, किन्तु इस समाधिगत आध्यात्मिक रसास्वादन में वह इतना लीन हो जाता है कि जाग्रत अवस्था को हेय समझकर उसे बिसरा देता है। श्री अरविंद के अनुसार अतीन्द्रिय क्षेत्र की चेतना को स्थल में जाग्रत तथा स्थल जगत को प्रात्मशक्ति द्वारा संचालित करना, निमित
आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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