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पंचम खण्ड | १८२
राजयोग में चित्तवृत्तियों की इस मनमानी अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था की स्थापना की जाती है। चित्तवति के उद्दाम चांचल्य और प्रवत्तियों के उच्छखल वेग को शांत और नियंत्रित करने के लिए योग में अष्टांग साधन-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि का विधान किया गया है। यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य) तथा नियम (शौच, तप, संतोष, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान) के विधिनिषेधमूलक तथा शमन-दमनपरक साधनों का यथासाध्य पालन करने से साधक चित्तविक्षोभ को दासता से थोड़ा बहुत मुक्त हो जाता है। मन को संयत बनाकर नियमों के दायरे में बांध कर मन को शांत और स्थिर बनाने का प्रयास किया जाता है। राजयोग मनोमयकोश पर ही केन्द्रित रहता है। किन्तु मन स्वयं स्वतंत्र नहीं होता । उस पर देह और प्राण का भी
आधिपत्य रहता है। इस कारण राजयोग में प्रासन और प्राणायाम को भी उपयोगी ठहराया गया है। परन्तु हठयोगी जिन कष्टसाध्य सैकड़ों प्रासन तथा विविध प्रकार के जटिल प्राणायाम, मलशोधक कठिन अभ्यासपरक क्रियानों, बन्धों, मुद्राओं को अनिवार्य-अपरिहार्य मानते हैं उनमें से राजयोगी उनको सरल-सहज बनाकर ध्यान की एकाग्रता के लिए जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करता है। इसीलिए योगसूत्रकार ने 'जिस प्रकार के बैठने से मन को स्थिर रखने में सुविधा हो, प्राणायाम आसानी से हो, उसीको आसन कहा है। प्राणायाम है श्वास-प्रश्वास गति का निरोध । इस निरोध के दो उद्देशय हैं-प्रथम श्वासप्रश्वास की गति के अवरुद्ध हो जाने पर चित्तवृति भी सहज ही निरुद्ध हो जाती है। दूसरे प्राणायाम साधना से सोई हुई कुण्डलिनी जाग जाती है जो प्राणशक्ति का आधार है। इस जागरण से चित्त पर जो घनीभूत तम की चादर पड़ी रहती है वह छिन्न-विच्छिन्न हो जाती है । चित्त स्वच्छ, निर्मल सत्त्व प्रकाशक बन जाता है। इन लक्ष्यों की पूर्ति के अतिरिक्त जितनी भी हठयोगी अवान्तर क्रियाएँ-साधनाएँ हैं उन्हें राजयोगी छोड़ देता है। साथ ही पासन-प्राणायाम की साधना से हठयोगी को जिन-जिन सिद्धियों-ऐश्वर्य भोग का प्रलोभन मिलता है उनकी ओर राजयोगी तनिक भी आकृष्ट नहीं होता । जब चित्त शांत, निर्मल और आनन्द से भर उठता है तब उसे सर्वथा विचार-वितर्क-शून्य और पूर्णतया निश्चल बनाने के लिए सहायता मिलती है । बाहरी पदार्थों से इन्द्रियों को हटाकर अन्दर की ओर मोड़ देना प्रत्याहार है। इस प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार को बहिरंग साधन माना गया है । बहिरंग साधनों की सिद्धि के पश्चात् धारणा, ध्यान
और अन्त में समाधि की ओर पहुँच कर स्वरूपस्थिति का साक्षात्कार करने पर राजयोग की सिद्धि सम्पन्न हो जाती है। धारणा आदि तीन साधन अन्तरंग साधन कहे जाते हैं। निर्बीज या असंप्रज्ञात समाधि में ध्याता-ध्यान-ध्येय की त्रिपुटी विलुप्त हो जाती है। केवल एक उदारविराट-महान स्वप्रतिष्ठ चैतन्य ही रहता है । चित्त के, शरीर के, प्राण के समस्त मल निर्मल एवं लुप्त हो जाते हैं, संस्कार शांत हो जाते हैं । 'दोषबीजक्षये कैवल्यम्' की उपलब्धि होती है।
, महर्षि पतंजलि ने लोगों की शक्ति और सामर्थ्य को देखकर विभिन्न राजयोगी प्रावधानों को व्यवस्था की है। इस व्यवस्था को अधिकारी-विवेचन कहा जाता है। उन्होंने तदनुसार उत्तम, मध्यम और मन्द भेद से तीन प्रकार के साधक माने हैं। ये क्रमशः युक्त-योगारूढ साधक उत्तम, युञ्जान साधक मध्यम तथा प्रारुरुक्ष साधक मन्द कहलाते हैं। इन्हीं के
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