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पंचम खण्ड १८४
| अर्चनार्चन
करना योगसाधना का लक्ष्य है। राजयोग में यह उद्देश्य प्राप्त नहीं होता। साधना से मिलने वाली सिद्धियों और ऐश्वर्य-भोगों के प्रति भी उसका हेयभाव ही रहता है। किन्तु ऐश्वर्य और भोग-सामग्री भी तो परमेश्वर की ही सम्पदा है। अत: इसकी अवहेलना न कर प्रभु द्वारा प्रदत्त प्रसाद के रूप में इसका उपयोग करना चाहिए।
राजयोग की साधना मानसिक जीवन की क्षमताओं को विकसित कर असाधारण पूर्णता प्रदान करती है और साधक को ऊँचे उठाकर आध्यात्मिक जीवन में प्रविष्ट करा देती है। किन्तु इसकी विधियां विशिष्ट हो सकती हैं, अनिवार्य नहीं। क्योंकि यह विधि चैत्य-भौतिक प्रक्रियाओं पर आधारित रहती है। यह विधि पूर्णतः प्राध्यात्मिक न होने के कारण कतिपय मनोभौतिक प्रक्रियाओं के परिणाम पर अवलम्बित होने के फलस्वरूप उच्चतर क्रिया के स्थान पर निम्नतर क्रिया को भी अपने आगोश में समाविष्ट करती है। यही कारण है कि हमारे पौराणिक वाङमय में अनेक ऋषि-मुनियों के उदाहरण मिलते हैं जो समाधि की उच्चतर अवस्था पर पहुँचकर भी स्खलित हो नीचे गिर पडते हैं जरा से इन्द्र की अप्सरामों के लुभावने यौवन-ग्रामंत्रण पर ।।
संभवतया इन्हीं न्यूनतामों को लक्ष्य में रख कर ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का त्रिविध मार्ग अपनी-अपनी विशिष्ट साधना पद्धतियां लेकर साधकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करता है। इस त्रिविध-योग में मानव मन को समग्र रूप में गहीत करने की अपेक्षा एक-एक अंग-ज्ञान-प्रेम-संकल्प को प्रधानता दी गयी है। इस मार्ग के अनुसरणकर्ताओं की ऐसी मान्यता रही है । सम्पूर्ण मानव को तोड़मरोड़ कर नूतन रूप से गढ़ने के बजाय इन केन्द्रीभूत मूलस्थलों को पकड़ा जाय, जिन पर अधिकार करने से समग्र व्यक्तित्व प्रभावित हो जाये। हठयोग और राजयोग में देह-प्राण-मन को परिष्कृत-परिमार्जितविशुद्ध बनाने में जिन जटिल कठोर साधना-प्रक्रिया तथा दीर्घ---ध्यानएकाग्रता पर बल दिया जाता है उन आसन-प्राणायाम-चित्तवृत्तिनिरोध की जो-जो प्रक्रियाएँ मानव मन पर आरोपित की जाती हैं, उनका दबाव डाला जाता है, उनकी तनिक भी आवश्यकता त्रिविध योग में नहीं पड़ती। क्योंकि सभी कृच्छ-कठोर पद्धतियां संकीर्ण कृत्रिम विधियों में न उलझ कर वे मानव को सहजभाव व स्वाभाविक अवस्था में अपनाने का प्रयास करती हैं। इसी कारण ज्ञान, भक्ति एवं कर्मयोग का त्रिविध मार्ग योगसाधना में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अपेक्षा इस मार्ग में उसके प्रज्ञा, भाव तथा संकल्प पक्षों में से एक-एक पर बल दिया जाता है। ज्ञानमार्ग का उद्देश्य एकमेव ऐसी सत्ता से तादात्म्य स्थापित करना है जो न तो कभी परिवर्तित होती है, न नष्ट होती है। यह सत्ता निर्गुण, निराकार, निर्विकार, नित्य, अज, अद्वैत स्वरूपा है । सत्-चित्-प्रानंद है । ज्ञानमार्गी साधक को ऐसा विवेक जाग्रत करना होता है जिसके बल पर वह इस सत्ता का साक्षात्कार कर सके । मन, वाणी और बुद्धि से इस सत्ता की अनुभूति नहीं होती। इसी कारण लोकगत विभिन्न पदार्थों को मायावत् मिथ्या मानना इसमें प्रावश्यक है। भक्तिमार्ग भावपक्ष को प्रधान मानता है । सर्वोच्च प्रेम और प्रानन्द का उपभोग करना इसका अन्तिम लक्ष्य है। पूर्ण समर्पण और अटूट श्रद्धा इसके साधन हैं। पूजा और ध्यान का प्रयोग केवल भगवान् से सम्बन्ध बनाने तक रहते हैं। सम्पूर्ण जगत् भगवान की लीला माना जाता है। भक्ति
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