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जन्य योगसाधनाएं और महर्षि अरविन्द
की सर्वांग योगसाधना
। ब्रजनारायण शर्मा
'नायमात्मा प्रवचेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन' 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः'
(-मुण्डक उपनिषद् ३।२।४-५) उक्त उपनिषद् वाणी का उद्घोष यही है कि आत्मा की उपलब्धि न तो प्रवचन-उपदेश से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से होती है । बलविहीन मनुष्य इसको प्राप्त नहीं कर सकता। समस्त भारतीय दार्शनिक धार्मिक सम्प्रदायों का परम पुरुषार्थ आत्मा का साक्षात्कार करना रहा है। योगसाधना भी उस प्रात्मा को अनुभूत करने का अनुपम मार्ग है। वैदिक (निगम) और प्रागमिक परम्परामों में योगसाधना सम्बन्धी विपुल साहित्य मिलता है। तांत्रिक साधना को भी प्रागमपरक माना जा सकता है । महर्षि अरविन्द के समक्ष योगसाधनामों की अत्यन्त समृद्ध विरासत विद्यमान थी, जैसे,
हठयोग, राजयोग, ज्ञान-भक्ति-कर्मयोग के त्रिविध मार्ग, तंत्र साधना-शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, सौर्य आदि तांत्रिक पद्धतियाँ, जैन साधना, बौद्ध साधना।
श्री अरविंद के अनुसार उक्त साधना-प्रणालियों की समीक्षा करने के पूर्व 'योग' और 'साधना' पद के विशिष्ट अर्थों को जान लेना आवश्यक है। व्युत्पत्ति के आधार पर 'युजिर योगे' और 'युज समाधों' दो प्रकार से 'योग' पद निष्पन्न किया जा सकता है। प्रथम के अनुसार जीवात्मा का परमात्मा से संयोग या मिलन है जबकि द्वितीय अर्थ में वह समाधि का वाचक है। सूत्रकार महर्षि पतंजलि ने योग पद को समाधि अर्थ में ही प्रयुक्त किया प्रतीत होता है यथा 'अथ योगानुशासनम् । (११), 'ता: एव सबीजः समाधिः' एवं 'तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधि: (योगसूत्र १२३६, ११५१) भाष्यकार ने स्पष्टतः 'योगः समाधिः' योग को समाधि कहा है। वाचस्पति मिश्र, विज्ञानभिक्षु, भोज, हरिहरानन्द प्रारण्य प्रादि टीकाकारों ने समाधि अर्थ में ही 'योग' पद की व्याख्या की है। तत्त्व वैशारदीकार ने संयोगार्थक 'युजिर योगे' अर्थ की आलोचना करते हुए समाधि अर्थ ही गृहीत किया है क्योंकि योगसम्मत छब्बीस पदार्थों का यथार्थ बोध हो जाने पर अविद्या आदि पाँच क्लेश तथा उनके निमित्त से होने वाले कर्मबंधन शिथिल पड़ जाते हैं और अन्त में समस्त चित्तवृतियाँ भी
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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