SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था, मैंने मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यानस्थ पूछा कि भगवन् वे मरकर कहाँ जाएँगे इसीलिए अवस्था में देखा। वे इस समय काल कर जाएँ तो मैंने सातवीं नरक की बात कही और जब यद्ध में की कहाँ पर पधारेंगे? उनका हाथ सिर पर गया और उन्हें स्मरण हो / - भगवान् ने जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे, कहा- आया कि मैं तो साधु हूँ, साधु होकर मैं कहाँ भटक 'श्रेणिक ! इस समय यदि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आयु गया। पश्चात्ताप की आग में सुलगने लगे और कर्मों। पूर्ण करें तो सातवीं नरक में जायेंगे। श्रेणिक के की निर्जरा करते हुए उन्होंने केवलज्ञान और केवल / / आश्चर्य का पार न रहा / एक महासन्त जो ध्यान- दर्शन को प्राप्त कर लिया है। इसीलिए भारत के lir स्थ है मेरु पर्वत की तरह अडोल है, वे सातवीं नरक महामनीषियों ने कहा है-'मन एव मनुष्याणां D में कैसे जाएँगे। कुछ क्षण रुककर पुनः जिज्ञासा कारणं बन्ध मोक्षयोः / ' मन से ही कर्मों का बन्धन प्रस्तुत की इस समय आयु पूर्ण करेंगे तो कहाँ होता है और मन से ही कर्मों की मुक्ति भी होती है। जाएँगे। भगवान ने कहा-छट्ठी नरक में / पुनः मन विष भी है और अमृत भी है। प्रश्न उठा / अब कहां जाएँगे ? भगवान ने पांचवीं, एक तिजोरी है। वह तिजोरी जिस चाबी से || चोथी, तीसरी, दूसरी और पहली नरक की बात खोली जाती है उसी चाबी से वह तिजोरी बन्द भी कही। उसके पश्चात् स्वर्ग में उत्तरोत्तर विकास होती है। केवल चाबी को घुमाने से ही तिजोरी / की स्थिति बताई और सम्राट सोच ही रहे थे कि बन्द भी होती है. और खुलती भी है / वैसे ही मन यह गजब की पहेली है / कहाँ सातवीं नरक और की तिजोरी भी अशुभ विचारों से कर्म का बन्धन र कहाँ सर्वार्थसिद्ध देवलोक कुछ ही क्षणों में पतन से करती है और शुभ विचारों से कर्म को नष्ट भी उत्थान की ओर गमन ? इतने में सम्राट के कर्ण करती है इसलिए हमें अशुभ विचारों से हटकर शुभ कुहरों में देव दुन्दुभि गडगडाने की आवाज आई। विचारों में रमण करना चाहिए। इसीलिए मैंने सम्राट ने पूछा कि देव दुन्दुभि की आवाज कहाँ से प्रवचन के प्रारम्भ में रूपक की भाषा में उस सत्य आ रही है भगवन् ! भगवान् ने स्पष्टीकरण किया को उजागर किया कि जब तक तुम अपने मन पर कि प्रसन्न चन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान और केवल नियन्त्रण नहीं कर सकोगे, तब तक विश्व पर नियंदर्शन हो चुका है। त्रण नहीं कर सकते / मन हमारा मित्र भी है और सम्राट श्रेणिक ने सहज जिज्ञासा प्रस्तुत की- दुश्मन भी है। मन से ही मोक्ष मिलता है। बिना 6 मैं इस अबूझ पहेली को नहीं बुझा सका हूँ। यह मन वाले प्राणी को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और न रहस्यमयी बात मेरी समझ में नहीं आई है। भग- अणवत और महावत ही प्राप्त होते हैं अतः हम वान ने समाधान की भाषा में कहा-प्रसन्नचन्द्र मन को साधे / मन को अपने नियन्त्रण में रखें तभी राजर्षि के अन्तर्मानस में जो द्वन्द युद्ध चल रहा था आनन्द का महासागर ठाठे मारने लगेगा। (EPh) और वे युद्ध की पराकाष्ठा पर थे तब तुमने मेरे से (शेष पृष्ठ 488 का) . सातवीं नरक में ले जाने वाला इन्द्रियों का असंयम वाले राजा की कहानी बताई। आप सम्यक प्रकार था। अरणक मुनि जब इन्द्रियों के प्रवाह में बहे से समझ गए होंगे कि इन्द्रिय संयम की कितनी तो साधना से भटक गये और जब इन्द्रियों पर आवश्यकता है / आज भौतिकवाद के युग में इन्द्रिय उन्होंने नियन्त्रण किया तो मोक्ष में पहुँच गये / हम असंयम के अनेक साधन उपलब्ध हैं। हम उनके 8 भी इन्द्रिय संयम कर अपने जीवन को महान बना प्रवाह में न बहें तभी आत्मा से परमान्मा और नर। सकते हैं / इन्द्रियों के प्रवाह में न बहें इसीलिए मैंने से नारायण बन सकेंगे। प्रारम्भ में आपको इन्द्रिय प्रवाह में प्रवाहित होने 462 सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन SANDRANI @ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Private & Personal Use Only
SR No.211627
Book TitleMan hi Mati Man hi Sona
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ceremon
File Size653 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy