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था। सीता उसे फटकारती, कुत्ते की तरह धुत्कारती, शैतान का घर होता है। मन को कभी भी खाली । तथापि वह गूलाम कुत्ते की तरह दुम हिलाता रहता न रखो। मन बालक के सदृश है । बालक के था । यह नपुसक मन की शक्ति थी जिसने रावण में यदि शस्त्र है तो वह स्वयं का भी नुकसान करेगा को भी पराजित कर दिया था इसलिए कवि ने और दूसरे का भी। यदि बालक के हाथ से शस्त्र कहा
छीनकर ले लिया जायेगा तो वह रोयेगा चिल्लामैं जाण्यू ए लिंग नपुंसक सकल मरद ने ठेले येगा। समझदार व्यक्ति बालक के हाथ में चमबीजी बातें समरथ छे नर एहने कोइ न झेले चमाता हुआ खिलौना देता है और उसके पास से हो कुन्थुजिन मनडूं किम ही न बाझे
शस्त्र ले लेता है। वैसे ही मन रूपी बालक के हाथ राजस्थान की एक लोक कथा है कि एक सेठ में विषय-वासना, राग-द्वेष के शस्त्र हैं, विकथा का ने भूत को अपने अधीन किया ! भूत ने कहा कि मैं
शस्त्र है तो उसके स्थान पर उसे स्वाध्याय, ध्यान, तुम्हारा जो भी कार्य होगा कर दंगा पर शर्त यह चिन्तन का यदि खिलौना पकड़ा दिया गया तो वह है कि मुझे सतत् काम बताना होगा जिस दिन अशुभ से हटकर शुभ और शुद्ध में विचरण करेगा। तुमने काम नहीं बताया उस दिन मैं तुम्हें निगल जो मन मारक था वह तारक बन जायेगा। जाऊँगा।
जैन साहित्य में एक बहुत ही प्रसिद्ध कथा है । सेठ बड़ा चतुर था। उसने सोचा कि मेरे पास प्रसन्नचन्द्र नामक राजर्षि एकान्त शान्त स्थान में & इतना काम है कि यह भूत करते-करते परेशान हो ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे । उस समय सम्राट
जायेगा। हजारों बीघा मेरी जमीन है धान्य के ढेर श्रेणिक सवारी सजाकर श्रमण भगवान महावीर लग जाते हैं तथा अन्य भी कार्य हैं। सेठ ने भूत को वन्दन करने के लिए जा रहा था। प्रसन्नचन्द्र की शर्त स्वीकार कर ली और कहा जाओ जो मेरी राजर्षि को ध्यान मुद्रा को देखकर उसका हृदय खेती है सबको काट डालो। अनाज का ढेर एक श्रद्धा से अभिभूत हो गया। सम्राट नमस्कार कर स्थान पर करो और भूसा एक स्थान पर करो। समवशरण की ओर आगे बढ़ गया । कुछ राहगीर अनाज की बोरियाँ घर में भर दो, कोठार में भर परस्पर वार्तालाप करने लगे कि प्रसन्नचन्द्र तो साधु दो। आदेश सुनकर भूत चल पड़ा और कुछ ही बन गये हैं पर इनके नगर पर शत्रुओं ने आक्रमण
क्षणों में कार्य सम्पन्न कर लौट आया। उसने दूसरा कर दिया है और वे नगर को लूटने के लिए तत्पर C कायं बताया, वह भी उसने कर दिया। उसने पुन: है। ये शब्द ज्योंही राजर्षि के कर्ण-कुहरों में गिरे,
आकर कहा- बताओ कार्य, नहीं तो मैं तुम्हें खा उनका चिन्तन धर्म-ध्यान से हटकर आर्त और 5 जाऊँगा। प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न श्रेष्ठी ने भत से रौद्र ध्यान में चला गया और वे चिन्तन करने लगे
कहा-चौगान में एक खम्भा गाड दो और मैं जबकि मैं शत्रओं को परास्त कर दंगा। मेरे सामने तक नया काम न बताऊँ तब तक तुम उस पर चढ़ते शत्रु एक क्षण भी टिक नहीं सकेंगे। प्रसन्नचन्द्र और उतरते रहो।
राजर्षि ने मन में युद्ध की कल्पना प्रारम्भ की । शत्रु भूत श्रेष्ठी की बात सुनकर सोचने लगा कि सेना दनादन मर रही है । स्वयं युद्ध के लिए सन्नद्धा यह बड़ा चालाक और बुद्धिमान है। मेरे चंगुल में हो चुके हैं। मन में संकल्प है सभी शत्रुओं को । कभी भी फंस नहीं सकता। वह श्रेष्ठी के चरणों समाप्त करके ही मैं संसार को बता दूंगा कि मैं
गिर पडा। भारत के उन तत्वदर्शी मनीषियों ने कितना वीर हैं। इस लोक कथा के माध्यम से इस सत्य को उजागर सम्राट श्रेणिक ने श्रमण भगवान महावीर को किया है कि मन भी भूत के सदृश है । खाली मन वन्दन कर पूछा भगवन् ! मैं श्री चरणों में आ रहा सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
४६१ . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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