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________________ मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २२७ ज्ञान प्राप्त हुआ था। संसार की नश्वरता और ईश्वर तक पहुँचाने वाले दृढ़प्रतिज्ञ शूरवीर भक्तों का वर्णन वैराग्य अंग और 'सूर अंग' में बड़ी सुन्दरता से हुआ है। 'दयाबोध' और 'विनयमालिका' दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं । एक उदाहरण देखिये--- सोवत जागत हरि भजो, हरि हिरदे न बिसार । डोरी गहि हरि नाम की, दया न टूटे तार ॥ ३. गवरी बाई (र० का० सं. १८३५ से १८९५) कवयित्री गवरीबाई ने डूंगरपुर के नागर ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। इनके माता-पिता प्रभभक्त थे। उनकी इस भक्ति-भावना का बालिका गवरी पर गहरा प्रभाव पड़ा। गवरीबाई बाल्यकाल से ही पतिसुख से वंचित हो गई थीं, परिणाम स्वरूप उन्होंने समस्त जीवन ईश्वरभक्ति-भावना में व्यतीत किया। इनके लिखे हुए करीब ६१० पदों का एक संग्रह उपलब्ध होता है जिसमें गवरी बाई की भक्ति भावना, विद्वत्ता और आराध्य के प्रति अनन्य भावना का पता लगता है। निर्गण शाखा के कवियों में जो स्थान सुन्दरदास का है वही स्थान निर्गण शाखा की कवयित्रियों में गवरीबाई का है। वे तो कहती हैं प्रभु मोको एक बेर दर्शन दइये।। हीरा, मानक, गरध भण्डारा, माल मुलक नहीं चहिये। ४. उमा (र. का. सं. १८ वीं शती का उत्तरार्द्ध) कबीर के राम की भाँति इनका राम दशरथसुत न होकर निर्गुण ब्रह्म है। वे उसके संग फाग खेलती हुई गाती हैं ऐसे फाग खेले राम राय, सुरत सुहागण सम्मुख आय । पंच तत्त को बन्यो है बाग, जामें सामन्त सहेली रमत फाग । जह राम झरोखे बैठे आय । प्रेम पसारी प्यारी लगाय ॥ ५. रूपां दे (र. का. सं. १५ वीं शती का मध्यकाल) संत कवयित्री रूपां दे राजा मल्लिनाथ की पत्नी थी। इनके गुरु का नाम उगमसी भाटी था। जाति पांति के बंधन तोड़ कर ये रामदेव जी के मंदिर में जाया करती थीं और प्रसाद लेती थीं। कवयित्री की इन गतिविधियों से राजा मल्लिनाथ की अन्य रानियाँ अप्रसन्न रहती .थीं। पर रूपां दे का इन सांसारिक बातों से कोई लेना देना नहीं था। वे तो सांसारिक भोगों एवं भौतिक ऐश्वर्य की नश्वरता को नकारती हुई कहती हैं पैला जैसी प्रीत सदाई कोनी रयसी रै। नेम धरम थारा छानां कोनी रयसी रै। धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211618
Book TitleMadhyakalin Rajasthani Kavya ke Vikas me Kaviyuitriyo ka Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Bhanavat
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size859 KB
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