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मुनि श्रीसुशीलकुमार
भिक्षु जमाली और बहुरतदृष्टिवाद
(6)
भगवान् महावीरके युग में, सत्य के सम्बन्ध में बहुत कुछ सोचा गया. वह एक चिन्तन-प्रधान युग था. विचारकोंने विचार की मौलिकता के नाते अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था. विचार एक बहुत बड़ी शक्ति है. विचारकों के बल से हम मनुष्य के सोचने के ढंग को और सिद्धान्त स्थापित करनेवाले दृष्टिकोण को इस प्रकार व्यवस्थित कर देते हैं कि बुद्धि की सही समझ और स्फुरणा से उठे हुए भावावेग वास्तविकता का रूप ले लेते हैं. जीवन और जगत् के प्रति जितनी हमारी धारणा है वह सब विचारकों की देन है. हमारे विश्वास और हमारी श्रद्धा हमें अपने सम्बन्ध में और जगत् के सम्बन्ध में स्वरूप निर्धारण करने में एक मात्र सहायक होती है. भगवान् महावीरने आत्मा को और इस सारे जगत् को स्याद्वाद की दृष्टि से, नय और निक्षेपके वर्गीकरण से व भेद और अभेद दृष्टि से सोचा है. इसी तरह भगवान् बुद्ध ने, पूर्ण काश्यप ने, प्रबुद्ध कात्यायन ने, मंखली गोशाल ने और संजय वेलट्ठीपुत्त ने भी इस जगत् के सम्बन्ध में अपने-अपने ढंग से विचार किया है. वह हमारे राष्ट्र का स्वर्ण-युग था. उस काल में मौलिक विचार और मौलिक दर्शन हमारी संपत्ति बन रहे थे. विचारों की दृढ़ता और आचार की निष्ठा उस युग की अस्मिता बन गई थी. जमाली उसी जमाने के ऋषि हैं. भगवान् महावीर के वे अनन्यतम शिष्य थे. सांसारिक सम्बन्ध में वे बहन के पुत्र होने के नाते भानजे लगते थे. और स्वयं भगवान महावीर की सुपुत्री का परिणय भी उन्हीं के साथ हुआ था, इस नाते भगवान् महावीर के जामाता भी थे. वैराग्य-भाव के साथ जमाली ने ५०० राजकुमारों और सुदर्शना ने १००० सखियों के साथ भगवान् महावीर के पास दीक्षा धारण कर ली थी. भगवान् महावीर के केवल-ज्ञान के चौदह वर्ष बाद श्रावस्ती के तदुकवन में यह चर्चा उठी थी, जिसको हम बहुरतदृष्टिवाद कहते हैं. जमाली, श्रमण भगवान् महावीर से अलग हो कर तैदुकवन में विश्रामार्थ गये तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, कि मेरा शरीर रुग्ण है, बहुत जल्दी मेरे शैयासन को बिछा दो. दर्शन का प्रारम्भ जीवन की बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से हो जाया करता है. मालूम नहीं कब सत्य या सत्याभास हमें प्राप्त हो जाये और उसके पीछे हम अपना सर्वस्व लगा दें. ऐसी ही स्थिति जमाली की हुई. आसन बिछाने की आज्ञा देने के बाद जमाली ने अपने शिष्यों से पूछा : 'मेरा आसन बिछ गया?' शिष्यों ने कहा : 'हां'. उनकी स्वीकारोक्ति के बाद जमाली जब बड़ी अधीरता के साथ पहुंचे तो देखा कि आसन अभी बिछ रहा है. जमाली ने कहा : 'सत्य का व्रत लेने वाले साधक इतना असत्य नहीं बोल सकते. आसन जब तक पूरी तरह बिछा नहीं, तब तक बिछे होने की बात कैसे कह सकते हैं ?' शिष्यों ने कहा : "श्रमण भगवान् महावीर का यह सिद्धांत है कि 'चलमाणे चलिए' और अन्त में “निज्जरमाणे निज्जरिए" इसके अनुसार जिस काम को हम कर रहे हैं, उसको कर चुके, ऐसा हमें मानना चाहिए.' जमाली कहने लगे : 'जब तक काम पूरा न हो जाय, जब तक क्रिया उद्देश्य को परिपूरित न कर दे, तबतक हम
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