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४२४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ऐसा नहीं कह सकते कि वह काम हो गया, अगर कहते हैं तो उसमें असत्य लगता है.' बस इतनी-सी बात पर चर्चा चल पड़ी. भगवान् महावीर का सिद्धांत और जमाली का तर्कवाद दोनों एक दूसरे के विरुद्ध मोर्चा बना कर खड़े होगए. जमाली के साधुओं में और सुदर्शना की साध्वियों में यह चर्चा चल पड़ी कि जमाली का कथन सत्य है या भगवान् महावीर का!' सुदर्शना जमाली के सिद्धांतका समर्थन करने लगी. किन्तु कुछ समय पश्चात् ही एक ऐसी घटना घटी कि जिससे उसे अपनी भूल का पता चल गया. ढंक नाम के प्रजापति के यहां ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ. ढंक जमाली के इस सिद्धांत का विरोधी था और भगवान् महावीर के 'चलमाणे चलिए' सिद्धांत का उपासक था. उसने उसके सामने अग्नि का एक शोला महासती सुदर्शनाकी साड़ी पर गिरा दिया. गिरते ही सुदर्शना चिल्ला उठी : 'मेरी साड़ी जल गई. तब ढंक ने कहा : 'आप जमाली के सिद्धांत को मानने वाली हैं, जब तक क्रिया की अन्तिम परिणति न हो जाय, तब तक आप यह नहीं कह सकतीं कि साड़ी जल गई, क्योंकि शोले ने साड़ी नहीं जलाई, अभी तो इसका एक हिस्सा ही जला है. आपने कैसे कह दिया कि साड़ी जल गई. बात तो व्यवहार की थी पर उसका असर मन पर हो गया और जमाली के सिद्धांत को एक आग के छोटे से शोले ने तथ्यहीन कर दिया. सुदर्शना के साथ अन्य साध्वियाँ भी महावीर के संघ में जा मिली. बहुत साधु भी जिनके मन में जमाली के सिद्धांत के प्रति आस्था नहीं हुई, भगवान् महावीर के श्रमण-संघ में चले गये, किन्तु जमाली अपनी बात पर डटे रहे और उनके लगातार चिन्तन ने बहुरतदृष्टिवाद को जन्म दिया.. व्यवहार का बहुत-सा सम्बन्ध जमाली के सिद्धांत से जुड़ता है. हम भोजन कर रहे हैं तो ऐसा नहीं कह सकते कि भोजन कर चुके. हम जा रहे हों तो ऐसा नहीं कहते कि हम जा चुके हैं. हम लिख रहे हों तो ऐसा नहीं कह सकते कि हम लिख चुके हैं अगर कहते हैं तो व्यावहारिक दृष्टि से सत्य उसके साथ नहीं रहता. जमाली ने अपने बहुरतदृष्टिवाद की सिद्धि के लिए जितने तर्क दिए हैं वे सब व्यवहार से लिए हैं. बहुरतदृष्टिवाद का अर्थ यह है कि उद्देश्य की परिपूर्णता में जब हम सफल हो चुके हों अर्थात् बहुतांश या सर्वांश में जब हम क्रिया पूर्ण कर लें तभी हमें किसी कार्य को किया हुआ' कहना चाहिए. यही जमाली का दर्शन था. वाणी सत्य के किनारों से सट कर चल सके, इस पर बड़ी शोध हुई है. यद्यपि वाणी और सत्य को अर्थात् यथार्थ और भाषा को आपस में जोड़ने की क्षमता पूर्णता से मनुष्य को प्राप्त नहीं हुई है. भाषा इतनी निर्बल और शक्तिहीन है कि वह अपने मन में उठने वाले किसी गंभीर भावावेग को अभिव्यक्ति नहीं दे सकती. गुड़ खाने के बाद गुड़ का स्वाद बताने का सामर्थ्य हमारी भाषा में नहीं है, 'गूंगे का गुड़' लोकोक्ति से आप यह मत समझ लीजिये कि गूंगा ही गुड़ का स्वाद नहीं बता सकता अपितु संसार का कोई भी व्यक्ति नहीं बता सकता. सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जब हम सत्य बोलने की प्रतिज्ञा लेते हैं उस समय जितनी सरलता प्रतीत होती है, उतना बोलने में सत्य को स्थापित करना आसान नहीं होता है. जमाली सत्य के पक्षपाती थे, और सत्य की पूर्ण रक्षा के विचार से ही उन्होंने बहुरतदृष्टिवाद की स्थापना की. जीवन के अन्त तक वे इसी बात पर डटे रहे. किन्तु भगवान् महावीर के अकाट्य तर्कों और गहराइयों से प्राप्त हुए अनुभव के मोती इतने वास्तविक थे कि उन्होंने बहुरतदृष्टिवाद को स्थापित नहीं होने दिया. भगवान् महावीर का कथन था कि लोग समय की सूक्ष्मता को और क्रिया की तीव्रता को पहचान नहीं पाते हैं. काल का सबसे छोटा हिस्सा, जिसके हम टुकड़े न कर सकें और जिससे और लघुतम काल की कल्पना न कर सकें, एक 'समय' कहा गया है. 'समय' को समझाने के लिये किसी भी दृष्टांत के द्वारा 'नेति-नेति' प्रक्रिया का ही अबलम्बन लेना पड़ता है. भगवान् महावीर कहते हैं कि आँख की पलक गिरा देने मात्र में असंख्पात समय बीत जाते हैं. 'समय' कितना सूक्ष्म है, इससे आप अनुमान लगा सकते हैं. फिर आवलिका, श्वासोच्छ्वास, प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, सहस्रयुग, पूर्व, शंकु, महापद्म, निखर्व, त्रुटितांग और शीर्षप्रहेलिका तक की गणना तो और भी विस्तृत है. यह सब गणना भी समय को नापने में असमर्थ है.
१. विस्तार से जानने के लिए देखिए, विशेषावश्यकसूत्र -गा० २३०६ से २३३२
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