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________________ मोदन करता है। वह अपने साथ अर्थात् अपनी आत्मा के साथ वैर भाव की वृद्धि करता है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक शरीर में एक आत्मा है और आत्मा हर शरीर की समान है । अतः हिंसा करने | का अर्थ आत्मा के साथ वैर भाव की वृद्धि करना तो है ही। तीर्थंकर महावीर ने ज्ञान और विज्ञान का सार बताते हुए कहा कि किसी भी प्राणी की हिंसा न की जाय । एवं खु णाणिणो सारं, जं न हिसइ किंचणं । ____ अहिंसा समयं चैव, एनावंत वियाणिया ॥1 महात्मा गाँधी ने अहिंसामूलक धर्म को स्वीकार करते हए ऐसे समाज की संरचना करने का संकल्प लिया था जहाँ हिंसा न हो। उन्होंने उस मदन लाल धींगरा को भी क्षमा दान दिया था जिसने उन्हें मार डालने के लिये उन पर बम फेंका था क्योंकि वह नहीं चाहते थे किसी भी प्राणी की हिंसा की जाय । यदि गोलियां लगने के बाद बोलने की क्षमता उनमें शेष रहती तो वह निश्चय ही हत्यारे नाथू राम गोडसे को भी क्षमा दान दे ही जाते क्योंकि वह तो एक अहिंसक समाज की रचना करने की साधना में रत थे। ___ व्यक्ति के लिये अहिंसा परम धर्म तो है ही परम तप भी है किन्तु जब एक सम्पूर्ण समाज को | अहिंसा के आचरण में दीक्षित करना हो तो आत्मसंयम का तप निश्चय ही बहुत कठिन हो जाता है । तीर्थंकर महावीर इस सत्य से परिचित थे क्योंकि वह सर्वज्ञ थे। उन्होंने कहा भी है-दुर्दम आत्मा का दमन करने वाला व्यक्ति ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है । आत्मदमन आत्मपीड़न का पर्याय है । आत्मा के अनुकूल वेदनीयता सुख है और प्रतिकूल वेदनीयता दुःख है । अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य । तीर्थंकर पुरुष चूंकि सर्वभूतहित के आकांक्षी होते हैं, इसलिए वे प्रतिकूल वेदनीयता पर विजय पाने के निमित्त आत्मदमन या आत्मपीड़न करते हैं। सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति पर दुःख के विनाश मूलक उदारता की उदात्त भावना से ओतप्रोत है । स्वतन्त्रता संग्राम की अवधि में महात्मा गाँधी ने इस आत्मदमन का परिचय कई बार दिया है। उन्होंने जब भी स्वतन्त्रता आन्दोलन को अहिंसा के मार्ग से विचलित होते देखा, आन्दोलन स्थगित | कर दिया और उपवास के माध्यम से आत्म-शुद्धि के तप का निर्वाह किया। यह उपवास यदा-कदा र आमरण अनशन की पराकाष्ठा तक जा पहुँचा है । इसमें सन्देह नहीं तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवन काल में आत्म पीड़न की चरम परिणति के माध्यम से अहिंसा के सिद्धान्त को उन बुलन्दियों तक पहुँचा दिया था जिसका अनुकरण कर मानव महानता के आलोक का निर्माण कर सकता है। किन्तु यह भी सत्य है कि महात्मा गाँधी ने आत्म-शुद्धि के यज्ञ को अपनी बलिदान भावना से अप्रतिम प्रतिष्ठा प्रदान की। स्वतन्त्रता आन्दोलन अपनी इसी / तेजस्विता के वरदानस्वरूप अपने लक्ष्य तक पहुँच पाया। अपनी धारणा को ही पूर्ण सत्य मानना एक हठधर्मी है जिसे उदात्त व्यक्ति स्वीकार नहीं कर ४३३ १. सूत्रकृतांग श्रु १, अ. १, गा. ६ २. उत्तरा. १/१५ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ G 450 Jain Education International For Private & Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.211590
Book TitleBharatiya Swatantryanodalan ki Ahimsatmakta me Mahavir ke Jivan Darshan ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrahlad N Vajpai
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size604 KB
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