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________________ करना है । ब्रिटिश जनता के, ब्रिटिश लोगों के विरुद्ध संघर्ष का या घृणा का भाव मन में पनपने देना नहीं चाहिए। तीर्थंक महावीर ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था-आत्मा एक है (एगे आया) अर्थात् । सबकी आत्मा एक रूप है, एक समान है । खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे । तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा को तप और संयम की श्रेणी में रखा है। अहिंसा को मंगलकारी मानते हुए तीर्थंकर महावीर भी ने बताया कि अहंसा को देवता भी नमस्कार करते हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन में जहाँ यह मर्म वाक्य मन्त्र के समान घोषित हुआ, गूंजा-स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। वहीं समता के सिद्धान्त को सबसे अधिक प्रतिष्ठा दी गयी। समता मूलक अहिंसावादी समाज की स्थापना के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वर्धा में एक ऐसे आश्रम ५४ को रूपायित किया था जहाँ क्रम क्रम से प्रत्येक आश्रमवासी स्वेच्छा से हर काम अपने हाथ से करने का अभ्यासी था। झाड देना, सत कातना. कएँ से पानी भरकर लाना. चर्खा चलाना. रसोई में एवं मैला उठाना आदि सभी काम स्वयं करने का अभ्यास हर आश्रमवासी करता था। अर्थात् तीर्थंकर महावीर के समतावादी सिद्धान्त को मूर्त रूप देने के लिए आत्मवत् सर्वभूतेषु के चैतन्य को चरितार्थ करने का प्रयास किया गया था ताकि मानव जीवन में समता का सिद्धान्त आत्मसात् कर आचरण में उतारा जा सके। अहिंसा पर अगाध विश्वास जहाँ समता का वातावरण बनाता है वहीं अहिंसा पर अनास्था, जातिगत अहं को सृष्टि करती है और हीन भावना का विस्तार करने में प्रमुख कारण बनती है। 5 अनास्था के कारण ही जाति के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उदात्त नहीं बन पाता। इसीलिये ऊंचनीच, छुआछूत आदि के बन्धन प्रभावशाली हो जाते हैं। कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ।। महात्मा गाँधी अहिंसात्मक आन्दोलन्द के सूत्रधार थे। उन्होंने तीर्थंकर महावीर के समतावादी सिद्धान्त का मर्म समझा था । इस सिद्धान्त को हृदयंगम करके ही उन्होंने वर्धा में ऐसे आश्रम की स्थापना की थी जहाँ कर्म के माध्यम से अन्ततः सभी जन सभी आश्रमवासी एकाकार हो जाते थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी ने अस्पृश्यता निवारण को सबसे अधिक महत्व देते हुए जीवन-मरण का प्रश्न बना दिया था। वह तो यहाँ तक कहते थे कि अस्पृश्यता निवारण और स्वतन्त्रता दोनों में से एक किसी एक का चयन करने के लिये मुझसे कहा जाय तो मैं अस्पृश्यता निवारण को प्राथमिकता देगा। उनकी स्पष्ट घोषणा थी अस्पृश्यता यदि कायम रहे तो इसके कायम रहते मुझे स्वतन्त्रता भी स्वीकार नहीं है । यही कारण था महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जो आन्दोलन चला उसमें एकता का भाव था। आन्दोलनकारियों में न कोई ऊँच था न नीच । न कोई अछूत था न कोई छूत । सारे भेद-भाव भुलाकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये संघर्ष करने वाले एकजुट होकर प्राण पण से संघर्ष करते रहे थे। अहिंसा नित्य, शाश्वत व ध्र व सत्य है । जो हिंसा करता है,करवाता है अथवा कर्ता का अनु १ दशव०१/१। २. उत्तरा. २५/३३ ४३८ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन परम्परा की परिलन्धियाँ : 5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ dehradha Jain Education International Tror private Personalise Only www.jainelibrary.org
SR No.211590
Book TitleBharatiya Swatantryanodalan ki Ahimsatmakta me Mahavir ke Jivan Darshan ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrahlad N Vajpai
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size604 KB
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