________________ भारतीय दर्शनों और मतवादों में केवल जैन दर्शन ही एक परिवर्तित होना और ध्रौव्य का अर्थ है - परिवर्तन के बावजूद ऐसा दर्शन है जिसने ईश्वर को सृष्टि-नियन्ता स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक वस्तु का द्रव्यत्व की दृष्टि से शाश्वत रहना / महावीर ने यद्यपि सांख्य दर्शन यह नहीं मानता कि सृष्टि की रचना किसी इसी सिद्धान्त के आधार पर (विभिन्न अपेक्षाओं की दृष्टि से) बहुत ईश्वर ने की है, इसी प्रकार योग दर्शन नहीं मानता कि सृष्टि का से प्रश्नों के उत्तर दिये हैं / परमाणु नित्य है या अनित्य ? इस पर निर्माण ईश्वर ने किया है' तथापि प्रकारान्तर रूप से ये ईश्वर की महावीर नं उत्तर दिया कि द्रव्यत्व-अर्थात्, वस्तु के मूल गुणों की कर्ता के रूप में सत्ता तो स्वीकार करते ही हैं / परन्तु जैन दर्शन ने अपेक्षा वह नित्य है और वर्ण-पर्याय अर्थात्, बाय स्वरूप की घोषणा की कि सृष्टि प्रवाह तो अनादि है और जड़-चेतन के संसर्ग दृष्टि से अनित्य है / इसी प्रकार जयन्ती श्राविका के प्रश्न और से स्वयं चालित है / इस चिंतन ने भारतीय संस्कृति को नया मोड़ महावीर के उत्तर अनेकांतवाद सिद्धान्त के पोषक हैं। दिया। जैन दर्शन की सब से बड़ी देन यह है कि वस्तु तत्त्व को जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को सब से बड़ी देना समझो, पक्षपात कहीं नहीं रहेगा / आज के युग में जबकि 'अनेकांतवाद' का सिद्धान्त है / 'अनेकांतवाद' किसी वस्तु तत्त्व साम्प्रदायिकता, हिंसा और पक्षपात का बोलबाला है - ऐसे युग में को अनेक पहलुओं और अपेक्षाओं से परखकर उसमें से सत्य का महावीर की यह घोषणा कि - "मानवता के लिए अहिंसा बहुत अन्वेषण करने का एक मान दण्ड है / 'अनेकांतवाद' दार्शनिक आवश्यक है परन्तु दूसरों के पक्ष को न समझकर जो हम मानसिक मतवादों के गहन सिद्धान्ती को अपेक्षा दृष्टि से देखकर उन सभी हिंसा कर रहे हैं यह अधिक हानिकारक है / " मतों, सम्प्रदायों और में निहित सत्यता को स्वीकार करता है / मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है राष्ट्रों के बीच बिना दूसरों के पक्ष को जाने हम स्वयं साम्प्रदायिक और ऐसा कोई मार्ग नहीं है जिसपर चलकर एक ही व्यक्ति सत्य बन रहे हैं / वस्तु तत्त्व का अनेकांतवाद की दृष्टि से गहन हमे पहले ज्ञान नहीं था / अतः जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को सब से बड़ी देन यह है कि - अपनी सीमित बुद्धि को ही चरम सत्य मत समझो परन्तु समस्त धर्मों में निहित सच्चाई को भी जानो। जानते हैं वह ठीक है, किन्तु उतना ही ठीक वह व्यक्ति भी हो सकता है जो हमारे विरुद्ध खड़ा है / यही जीवनदृष्टि अनेकांतवाद हमें प्रदान करता है। दहा अनेकांतवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण-पर्याय और धर्मों का अखण्ड पिण्ड है / वस्तु को तुम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है / उसमें अनन्त दृष्टिकोणों से देखने की आवश्यकता है / जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु का 'उत्पादव्यय' और ध्रौव्या की दृष्टि से अन्वेषण करता है। यही वस्तु का सत्य है / उत्पाद का अर्थ है जो वस्तु पहले से है वह अनादि है / व्यय का अर्थ है - प्रत्येक पदार्थ का दव्वठयाए सासए वण्ण पज्जवेहिं जाव कास वज्जवेहिं / असासए, से तेजढे णं जाव - सियासाए असासए / (भगवतीसूत्र, 14/34) मधुकर-मौक्तिक णार पनि संस्कृति के चार अध्याय - रामधारीसिंह 'दिनकर' / संस्कृति के चार अध्याय -पृ.१५३ उपादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत् - तत्त्वार्थसूत्र भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन में एक बहुत बड़ा सत्य उजागर किया है। उन्होंने कहा है- इस संसार में चारों ओर भय व्याप्त है। सभी प्राणी भयभीत हैं / भयभीत वे इसलिए है कि उन्हें अपनी नीति का ज्ञान नहीं है। यदि आत्मनीति का ज्ञान हो जाए तो भय अवश्य ही भाग जाएगा; इसलिए यदि आत्मनीति को जानना है, तो नवकार के निकट जाना होगा / नवकार आत्मनीति का कल्याणकारी ज्ञान करायेगा / नीति का आगमन होते ही भीति भाग जाएगी। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर दस वर्षों तक जैन शिक्षा निकेतन बोर्ड पंजाब, लुधिआना में शिक्षापति के रूप में कार्य किया / आचार्य श्री आत्माराम जैन शिक्षा निकेतन, लुधिआना में लगभग दस वर्षों तक मुख्यभ्राता के रूप में कार्यरत / तीन कृतियाँ प्रकाशित | 'पंजाब के हिंदी जैन कवियों का सर्वांगीण अध्ययन' और अध्ययन शोधकार्य पर स्वर्णपदक प्राप्त / शासकीय महाविद्यालय लुधियाणा एवं खालसा महाविद्यालय फगवाड़ा में पांच वर्ष तक अध्यापन कार्य / डॉ. मुलखराज जैन (एम.ए., पी.एच.डी.) (57) दिलसे भ्रम निकला नहीं, स्नेह गया अति दूर। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International For Private & Personal Use Only