Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Darshan ka Avadan
Author(s): Mulakhraj Jain
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 1
________________ भारतीय संस्कृति में जैन-दर्शन का अवदान (डॉ. मुलखराज जैन) 'संस्कृति' बड़ा मोहक तथा आकर्षक शब्द है । इसकी व्युत्पत्ति 'संस्कार' शब्द से होती है, जिस का अभिप्राय है . परिष्कृत करना अथवा उत्तम बनाना । प्रत्येक देश की अपनी एक संस्कृति होती है जो वहां के जन समुदाय की परिष्कृत भावनाओं, संस्कारों और चिंतन का प्रतिबिम्ब हुआ करती है | भारत की भी अपनी एक संस्कृति है जो भारतीयों के संस्कारों, भावनाओं, चिंतन और जीवन मूल्यों की परिचायिका है । भारतीय संस्कृति हमारे पूर्वजों की थाती है जो युगों-युगों के अनुभूत सत्यों की अर्जित सम्पत्ति है । भारत में विभिन्न प्रकार की जातियां, साधनाएं, मान्यताएं और आचार पद्धतियां हैं, फिर भी भारतीय संस्कृति अपने मूलभूत गुणों और विशेषताओं के कारण अब भी जीवित है । वे मूलभूत गुण अथवा विशेषताएं हैं - समन्वय-भावना, अध्यात्म-साधना और आत्मसंयम, गुणग्रहण-शीलता आदि । 'समन्वय-भावना' भारतीय संस्कृति की मूल भित्ति है | इसी गुण के कारण नाना धर्म-साधनाओं और आचार-निष्ठाओं के होते हुए भी इसने समस्त धर्मों के लिए त्याग और मोक्ष के द्वार खोल दिए । स्वामी रामानन्द प्रभृति आचार्यों ने एक ओर 'सगुणमतवाद' की प्रतिष्ठा की तो दूसरी ओर 'निर्गुणमतवाद' को भी प्रश्रय दिया। यह गुण इसी समन्वय-साधना का ही परिणाम है । वास्तव में भारतीय संस्कृति ने 'व्यक्तिगत' धर्म साधना को अधिक महत्त्व दिया है । यही कारण है कि व्यक्ति को यदि किसी विशेष साधनापद्धति से आनन्दानुभूति होती हो तो भारतीय संस्कृति उसे सहर्ष स्वीकार करती है । तुलसीदास भारतीय संस्कृति के उन्नायकों में से एक हैं, जिनका 'मानस' समन्वय की विराट चेष्टा है । शंकराचार्य के 'अद्वैतवाद' और रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद' के मध्य ज्ञान और भक्ति को लेकर दार्शनिक वैमनस्य आरम्भ हो गया था। एक केवल ज्ञान को दूसरा केवल भक्ति को मोक्ष-मार्ग मानता था । तुलसी ने दोनों को अभिन्न मानकर भव-भय-नाशक स्वीकार किया। अध्यात्म साधना और आत्म-संयम के संदर्भ में भारतीय संस्कृति ने 'भौतिक सुखवाद' को कभी वरीयता प्रदान नहीं की। यह एक आर्य-संस्कृति है | त्याग से अनुप्राणित और तपस्या से पोषित भारतीय संस्कृति का भव्य प्रासाद हमारे ऋषियों और श्रमणों से ही शोभा पा रहा है । मध्य युग से पूर्व सिद्धों ने 'महासुखवाद' को अपनी साधना का अंग बना लिया था | सिद्ध सरहपाद ने यह घोषणा की थी कि 'खाते-पीते, सुरत का रमण करते, सुन्दरियों के चक्र में घूमते इस प्रकार जो सिद्धि पाकर परलोक जाता है, वही संसार के माथे पर पाँव रखकर आगे बढ़ जाता है ।' परन्तु यह सब भारतीय संस्कृति में न खप सका । जब सिकन्दर ने अपने आक्रमण के समय महान भारतीय ऋषि दाण्डयायन को भय से अथवा प्रलोभन से अपने पक्ष में करने का प्रयत्न किया तब ऋषि ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी इच्छा का क्रीडा कंदुक नहीं बन सकता । इच्छाओं का शमन और त्याग ही भारतीय संस्कृति का अमर स्वर रहा है। सत्य का अन्वेषण और दूसरे के अच्छे गुणों को ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने कभी संकोच नहीं किया। भारतीय ज्योतिष का विकास यूनानी ज्योतिष के प्रभाव से हुआ । इसी प्रकार नाट्यशाला, मूर्ति-कला पर भी यूनानी प्रभाव मिलता है । यद्यपि भारतीय संस्कृति में श्रमण, यति और सन्त लोग अत्यन्त त्याग को महत्त्व देते हैं परन्तु समाज-हितमें उन्होंने दूसरों के अच्छे गुणों को उपादेय स्वीकार किया । भारतीय संस्कृति में जैन दर्शन का अवदान - जैन दर्शन भारतीय संस्कृति के विशालतम वृक्ष का ही एक मधुरतम फल है | जैन दर्शन ने अपने चिन्तन में जो क्रान्ति उत्पन्न की उसने भारतीय संस्कृति पर गहरी छाप छोड़ी है । यद्यपि जैन दर्शन प्रवाह से चली आ रही भारतीय संस्कृति का ही एक स्रोत है तथापि इस स्रोत की कुछ निजी धाराएं हैं, जो अन्य संस्कृतियों की नहीं । अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या, ईश्वर की सृष्टि-कर्ता के रूप में अस्वीकृति, अनेकान्तवाद आदि ऐसी ही उसकी कुछ चिंतन धाराएं हैं जिनका गौरव जैन श्रमणों की दीर्घ साधना और अनुभूति के साथ जुड़ा हुआ है। किया वैदिक संस्कृति में भी अहिंसा जैसे तत्त्व पर विचार किया गया है परन्तु ब्राह्मण-संस्कृति-प्रधान होने से उसमें वैदिक युग के बाद जिस पशुबलि का प्रचलन हो गया था उससे जन समाज में वैषम्य तथा उद्विग्नता उत्पन्न हो गई थी । यज्ञों को जीवन की संस्कृति मान लिया गया था । आगे चलकर महावीर ने इस संस्कृति का समर्थन नहीं किया । लोगों में चिरकाल से चली आ रही - 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति - के विरोध में विचार भेद हुआ । महावीर को इस के लिए अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ा। यज्ञों में पशु-बलि के स्थान पर महावीर ने घोषणा की कि सभी जीव जीना चाहते हैं, सुख सब को अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है, वध अप्रिय है अतः किसी भी प्राणी को मत मारो । उपनिषद् काल में आगे चलकर इस का प्रभाव पड़ा। २. भारतीय संस्कृति दिग्दर्शन श्यामचन्द्र कपूर । सवे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं चोरं, निग्गथा वज्जयंतिणं ।। (समणसुत्त) खाअन्ते, पीवन्ते सुरअ रमन्ते । अलि-उल वहल हो चम्क करते ।। एवहि सिद्धि जाई परलोह । माथे पाअ देइ मुअलोअह ।। (सिद्धसरहपाद-दोहाकोश) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५६) नेह तज तन धन नार का, तजे कीर्ति अरुमान । जयन्तसेन वीर वही, करता जग कल्याण Maryadri Jain Education International For Private & Personal Use Only

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