________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा 173 -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. अमितगति श्रावकाचार में कायोत्सर्ग के कालमान में उच्छ्वासों का एक विशेष प्रकार दिया गया है, जो मननीय है / वह इस प्रकार है अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः, कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे / सान्ध्यो प्राभातिके वार्ध-मन्यस्तत्सप्तविंशतिः / सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे / सन्ति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति // 6. 68-66. प्रतिमाएं कायोत्सर्ग के प्रसंग में जैन आगमों में विशेष प्रतिमाओं का उल्लेख है। प्रतिमा अभ्यास की एक विशेष दशा है / भद्रा प्रतिमा, महाभद्रा प्रतिमा, सर्वतोभद्र प्रतिमा, महाप्रतिमा आदि में-कायोत्सर्ग की विशेष दशाओं में स्थित होकर भगवान् महावीर ध्यान करते रहे थे, ऐसा उन-उन आगमिक स्थलों में संकेत है, जो महावीर की साधना के इतिवृत्त से सम्बद्ध हैं। स्थानांगसूत्र में सुभद्रा-प्रतिमा का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त समाधि-प्रतिमा, उपधान-प्रतिमा, विवेक प्रतिमा, व्युत्सर्ग प्रतिमा, क्षुल्लि कामोद-प्रतिमा, यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्यप्रतिमा आदि की आगम वाङ्मय में चर्चाएँ हैं / पर इनके स्वरूप तथा साधना के सम्बन्ध में विशेष कुछ प्राप्त नहीं है / अनुमान है, यह परम्परा लुप्त होगई / यह निश्चय ही एक गवेषणीय विषय है / आलम्बन : अनुप्रेक्षा : भावना ध्यान को परिपुष्ट करने के लिए जैन आगमों में उनके आलम्बन अनुप्रेक्षा आदि पर भी विचार किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में इनकी विशेष चर्चा की है। उदाहरणार्थ, उन्होंने मैत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य को धर्म-ध्यान का पोषक कहा है। जैसे मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत् / धर्मध्यानमुपस्कतु तद्धि तस्य रसायनम् / / 4.117. ध्यान के लिए अपेक्षित निर्द्वन्द्वता के लिए जैन साहित्य में द्वादश भावनाओं का वर्णन है। आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि ने भी इनका विवेचन किया है। वे भावनाएँ निम्नांकित हैं अनित्य, अशरण, भव, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक तथा बोधि-दुर्लभता--इन भावनाओं के विशेष अभ्यास का जैन-परम्परा में एक मनोवैज्ञानिकता-पूर्ण व्यवस्थित क्रम रहा है, ऐसा प्रतीत होता है / मानसिक आवेगों, तनावों को क्षीण करने के लिए निःसन्देह भावनाओं के अभ्यास का बड़ा महत्त्व है। आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना आदि का जो विस्तृत विवेचन जैन (योग के) आचार्यों ने किया है, उसके पीछे विशेषतः यह आशय रहा है कि चित्तवृत्तियों के परिष्कार, परिशोधन व निरोध के लिए अपेक्षित निर्मलता, ऋजुता, सात्त्विकता एवं उज्ज्वलता का अन्तर्मन में उद्भव हो सके। अनुभूति आचार्य हेमचन्द्र के योग-शास्त्र का अन्तिम प्रकाश अनुभव पर आधृत है। उसका प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं श्रुतसिन्धोर्गुरुमुखतो यदधिगतं तदिह शितं सम्यक् / अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम् / / 12.1. शास्त्र समुद्र से तथा गुरुमुख से जो मैंने प्राप्त किया, वह पिछले प्रकाशों (अध्यायों) में मैंने भली-भांति व्याख्यात कर ही दिया है / अब जो मुझे अनुभव से प्राप्त है, वह निर्मल तत्त्व प्रकाशित कर रहा हूँ। - 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org