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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित निवितर्क-समापत्ति एकत्व-वितर्क-अविचार से तुलनीय है। पतंजलि लिखते हैं---
स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्यमेवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।। १.४३. जब स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का---ध्येयमात्र का निर्भास कराने वाली-ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली हो, स्वयं स्वरूप शून्य की तरह बन जाती है, तब वैसी स्थिति निर्वितर्का समापत्ति से संज्ञित होती है।
यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है। जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है, ऐसा पतंजलि कहते हैं-जैसे
एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।१.४४. निर्विचार समाधि में अत्यन्त वैशद्य-नैल्य रहता है। अत: योगी उसमें अध्यात्म-प्रसाद-आत्म-उल्लास प्राप्त करता है। उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतम्भरा होती है। ऋतम् का अर्थ सत्य है । वह प्रज्ञा या बुद्धि सत्य का ग्रहण करने वाली होती है। उसमें संशय और भ्रम का लेश भी नहीं रहता। उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का अभाव हो जाता है। अन्ततः ऋतम्भरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है। यों समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं। फलत: संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से निर्बीज-समाधि-दशा प्राप्त होती है।
इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण कुछ भिन्न है । जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं के कारण उसका शुद्ध स्वरूप आवृत है। ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाता है, आत्मा की वैभाविक दशा छूटती जाती है और वह स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जाती है। आवरणों के अपचय या नाश के जैन दर्शन में तीन क्रम हैं-क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम । किसी कार्मिक आवरण का सर्वथा नष्ट या निर्मूल हो जाना क्षय, अवधि विशेष के लिए मिट जाना या शान्त हो जाना उपशम तथा कर्म को कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण हो जाना तथा कतिपय प्रकृतियों का अवधि विशेष के लिए शान्त हो जाना क्षयोपशम कहा जाता है। कर्मों के उपशम से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज है; क्योंकि वहाँ कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं होता, केवल उपशम होता है। कार्मिक आवरणों के सम्पूर्ण क्षय से जो समाधि-अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है; क्योंकि वहाँ कर्मबीज परिपूर्णरूपेण दग्ध हो जाता है। कर्मों के उपशन से प्राप्त उन्नत दशा फिर अपनस दशा में परिवर्तित हो सकती है, पर कर्म-क्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता ।
पातंजल योग तथा जैन दर्शन के प्रस्तुत पहलू पर गहराई तथा सूक्ष्मता से विचार करने की अपेक्षा है।
कायोत्सर्ग
__ कायोत्सर्ग जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसका ध्यान के साथ विशेष सम्बन्ध है। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है-शरीर का त्याग-विसर्जन । पर जीते-जी शरीर का त्याग कैसे संभव है ? यहाँ शरीर के उत्सर्ग का अर्थ है शरीर की चंचलता का विसर्जन–शरीर का शिथिलीकरण, शारीरिक ममत्व का विसर्जन-शरीर मेरा है, इस ममत्वभाव का विसर्जन । ममत्व और प्रवृत्ति मन और देह में तनाव उत्पन्न करते हैं। तनाव की स्थिति में ध्यान कैसे संभाव्य है ? अतः मन को शान्त व स्थिर करने के लिए शरीर को शिथिल करना बहुत आवश्यक है । शरीर उतना शिथिल होना चाहिए, जितना किया जा सके। शिथिलीकरण के समय मन पूरा खाली रहे, कोई चिन्तन न हो, जप भी न हो। यह न हो सके तो ओ३म् आदि का ऐसा स्वर-प्रवाह हो कि बी व में कोई अन्य विकल आ ही न सके । उत्तराध्ययन सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, दशकालिकचूणि आदि में विकीर्ण रूप में एतत्सम्बन्धी सामग्री प्राप्य है। अमितगति श्रावकाचार तथा मूलाचार में कायोत्सर्ग के प्रकार, काल-मान आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
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