SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६६ ........................................................................... आचार्य हेमचन्द्र तथा शुभचन्द्र ने प्राणायाम का जो विस्तृत वर्णन किया है, वह हठयोग-परम्परा से प्रभावित प्रतीत होता है। भाव-प्राणायाम कुछ विद्वानों (जैन) ने प्राणायाम को भाव-प्राणायाम के रूप में एक नई शली से व्याख्यात किया है। उनके अनुसार बाह्यभाव का त्याग रेचक, अन्तर्भाव की पूर्णता पूरक तथा समभाव में स्थिरता कुम्भक है। श्वासप्रश्वास-मूलक अभ्यास-क्रम को उन्होंने द्रव्य-बाह्य प्राणायाम कहा । द्रव्य-प्राणायाम की अपेक्षा भाव-प्राणायाम आत्म-दृष्ट्या अधिक उपयोगी है, ऐसा उनका अभिमत था। प्रत्याहार महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार का विश्लेषण करते हुए लिखा है स्वविषयासम्प्रयोगो चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । २.५४. अर्थात्-अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाना प्रत्याहार है। जैन परम्परा में निरूपित प्रतिसंलीनता को प्रत्याहार के समकक्ष रखा जा सकता है। प्रतिसंलीनता जैन वाङ्मय का अपना पारिभाषिक शब्द है, जिसका आशय अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना है। दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य 'स्व' को अप्रशस्त से हटा प्रशस्त की ओर प्रयाण करना है। प्रतिसंलीनता के निम्नांकित चार भेद हैं१. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता --इन्द्रिय-संयम २. मनःप्रतिसंलीनता -मन का संयम ३. कषाय-प्रतिसलीनता -कषाय-संयम ४. उपकरण-प्रतिसंलीनता --उपकरण-संयम स्थूल रूप में प्रत्याहार तथा प्रतिसंलीनता में काफी दूर तक सामंजस्य प्रतीत होता है। पर, दोनों के अन्तः स्वरूप की सूक्ष्म गवेषणा अपेक्षित है, जिससे तत्तद्गत तत्त्वों का साम्य, सामीप्य अथवा पार्थक्य आदि स्पष्ट हो सकें। औपपातिक सूत्र बाह्य तप अधिकार तथा व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (२५.७.७) आदि में प्रतिसंलीनता के सम्बन्ध में विवेचन है। नियुक्ति, चूणि तथा टीका साहित्य में इसका विस्तार है। धारणा, ध्यान, समाधि धारणा, ध्यान और समाधि योग के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हैं । पातंजल तथा जैन-दोनों योग-परम्पराओं में ये नाम समान रूप में प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वानों ने अपनी-अपनी शैली में इनका विश्लेषण किया है । धारणा के अर्थ में 'एकाग्रमनःसन्निवेशना' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। धारणा, ध्यान एवं समाधि-इन तीनों योगांगों का अत्यधिक महत्त्व इसलिए है कि साधक या योगी इन्हीं के सहारे दैहिक भाव से छूटता हुआ उत्तरोत्तर आत्मोत्कर्ष या आध्यात्मिक अभ्युदय की उन्नत भूमिका पर आरूढ़ होता जाता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र के संवर द्वार तथा व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्र के पच्चीसवें शतक के सप्तम उद्देशक आदि अनेक आगमिक स्थलों में ध्यान आदि का विशद विश्लेषण हुआ है। पतंजलि ने धारणा का लक्षण करते हुए लिखा है "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥"३३१. आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि देह के बाहरी देश-स्थान हैं तथा हृत्कमल, नाभिचक्र आदि भीतरी देश हैं। इनमें से किसी एक देश में चित्त-वृत्ति लगाना धारणा है। ध्यान का लक्षण उन्होंने इस प्रकार किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211566
Book TitleBharatiya Yoga aur Jain Chintandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size544 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy