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________________ १७० कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ___ "तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ।।"३.२. अर्थात् ध्येयवस्तु में वृत्ति की एकतानता-उसी वस्तु में चित्त का एकाग्र हो जाना, बीच में किसी व्यवधान का न रहना ध्यान है। समाधि के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है ___ "तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।।"३. ३. जब केवल ध्येय मात्र का ही निर्भास या प्रतीति हो तथा चित का अपना स्वरूप शून्य जैसा हो जाए, तब वह ध्यान समाधि हो जाता है । धारणा, ध्यान और समाधि का पातंजल योग की दृष्टि से यह संक्षिप्त परिचय है। भाष्यकार व्यास तथा वृत्तिकार भोज आदि ने इनका विशद एवं मार्मिक विवेचन किया है।। ___अन्त: परिष्कार या आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए जैन साधना में ध्यान का बहुत बड़ा महत्त्व रहा है। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण ध्यान-योगी भी है। आचारांग-सूत्र के नवम् अध्ययन में, जहाँ भगवान् महावीर की चर्या का वर्णन है, वहाँ उनकी ध्यानात्मक साधना का भी उल्लेख है। विविध आसनों से, विविध प्रकार से, नितान्त असंग भाव से उनके ध्यान करते रहने के अनेक प्रसंग वहाँ वणित हैं । एक स्थान पर लिखा है कि वे सोलह दिन-रात त: सतत ध्यानशील रहे। उनकी स्तवना में उन्हें वहाँ अनुत्तर ध्यान के आराधक कहा गया है तथा शंख और इन्दु की भाँति उनका ध्यान परम शुक्ल बताया गया है। वास्तव में जैन-परम्परा की जैसी स्थिति आज है, भगवान महावीर के समय में सर्वथा वैसी नहीं थी। आज लम्बे उपवास, अनशन आदि पर जितना जोर दिया जाता है, उसकी तुलना में मानसिक एकाग्रता, चैतसिक वृत्तियों का नियन्त्रण, ध्यान, समाधि आदि गौण हो गये हैं। परिणामतः ध्यान-सम्बन्धी अनेक तथ्यों तथा विधाओं का लोप ही गया है। स्थानांगसूत्र स्थान या अध्ययन ४ उद्देशक १, समवायांगसूत्र समवाय ४, आवश्यकनियुक्ति कायोत्सग अध्ययन में, इनके व्याख्यात्मक वाङमय में तथा और भी अनेक आगम ग्रन्थों एवं उनके टीका-साहित्य में एतत्सम्बन्धी सामग्री पर्याप्त मात्रा में बिखरी पड़ी है। __ आचार्य हेमचन्द्र और शुभचन्द्र ने ध्याता की योग्यता एवं ध्येय के स्वरूप का विवेचन करते हुए ध्येय को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत यों चार प्रकार का माना है। उन्होंने पाथिवी, आग्नेयी, वायवी, वारुणी और तत्वभू के नाम से पिण्डस्थ ध्येय की पाँच धारणाएं बताई हैं, जिनके सम्बन्ध में ऊहापोह, अनुशीलन तथा गवेषणा की विशेष आवश्यकता है। इसी प्रकार पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का भी उन्होंने विस्तृत विवेचन किया है, जिनका सूक्ष्म अनुशीलन अपेक्षित है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और एकादश प्रकाश में ध्यान का विशद विवेचन किया है। धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान जो आत्म-निर्मलता के हेतु हैं, का उक्त आचार्यों (हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र) ने अपने ग्रन्थों में सविस्तार वर्णन किया है। ये दोनों (ध्यान) आत्मलक्षी हैं। शुक्लध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों के सधता है। वह अन्तःस्थैर्य या आत्म-स्थिरता के पराकाष्ठत्व की दशा में है। धर्म-ध्यान उससे पहले की स्थिति है। वह शुभ-मूलक है। जैन परम्परा में अशुभ, शुभ और शुद्ध-इन तीन शब्दों का विशेष रूप से व्यवहार हुआ है। अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक तथा शुद्ध पाप-पुण्य से अतीत निरावरणात्मक दशा है। तत्त्वार्थ सूत्र में धर्मध्यान के चार भेद बतलाये हैं आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ॥६. ३७. अर्थात्-आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय तथा संस्थान-विचय-धर्मध्यान के ये चार भेद हैं। स्थानांग समवायांग, आवश्यक आदि अर्द्धमागधी आगमों में विकीर्ण रूप में इनका विवेचन प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211566
Book TitleBharatiya Yoga aur Jain Chintandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size544 KB
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