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________________ ६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -आसनों को निषीदन-स्थान कहा जाता है । उसके अनेक प्रकार हैं-निषद्या, बीरासन, पद्मासन, उत्कटिकासन, गोदोहिका, मकरमुख, कुक्कुटासन आदि । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के अन्तर्गत पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन दण्डासन, उत्कटिकासन या गोदोहासन तथा कायोत्सर्गासन का उल्लेख किया है। आसन के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने एक विशेष बात कही है । वे योगशास्त्र में लिखते हैं जायते येन येनेह, विहितेन स्थिरं मनः । । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यानसाधनम् ॥४.१३४॥ अर्थात्-जिस-जिस आसन के प्रयोग से साधक का मन स्थिर बने, 'उसी आसन का ध्यान के साधन के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। हेमचन्द्र के अनुसार अमुक आसनों का ही प्रयोग किया जाय, अमुक का नहीं, ऐसा कोई निर्बन्ध नहीं है । पातंजल योग के अन्तर्गत तत्सम्बद्ध साहित्य-जैसे शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थों में आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगों का अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया गया है। काय-क्लेश जैन परम्परा में निर्जरा के अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग-इन बारह भेदों में पाँचवाँ काय-क्लेश है। काय-कलेश के अन्तर्गत अनेक दैहिक स्थितियाँ भी आती हैं तथा शीत, ताप आदि को समभाव से सहना भी इसमें सम्मिलित है। इसका नाम कायक्लेश संभवतः इसलिए दिया गया है कि दैहिक दृष्टि से जन-साधारण के लिए यह क्लेशकर है। पर, आत्मरत साधक जो देह को अपना नहीं मानता, जो क्षण-क्षण आत्माभिरति में संलग्न रहता है, इसमें कष्ट का अनुभव नहीं करता। औपपातिक सूत्र के बाह्य तप-प्रकरण में तथा दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की सप्तम दशा में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। प्राणायाम जैन आगमों में प्राणायाम के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन नहीं मिलता। जैन मनीषी एवं शास्त्रकार इस विषय में कुछ उदासीन से रहे, ऐसा अनुमित होता है। संभाव्य है, आसन तथा प्राणायाम को उन्होंने योग का बाह्यांग मात्र माना, अन्तरंग नहीं। वस्तुतः वह हठयोग के ही मुख्य अंग हो गये। लगभग छठी शताब्दी के पश्चात् भारत में एक ऐसा समय आया, जब हठयोग का अत्यन्त प्राधान्य हो गया। वह केवल साधन नहीं रहा, साध्य तक बन गया । तभी तो देखते हैं, घेरण्डसंहिता में आसनों को चौरासी से लेकर चौरासी लाख तक पहुँचा दिया। हठयोग की अतिरंजित स्थिति का खण्डन करते हुए योगवासिष्ठकार ने लिखा है सती सु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्ये विनिध्नन्ति तमोऽजनैः ॥ विमूढा कर्तुमुधु क्ता, ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्त विसतन्तुमि :॥ -योगवासिष्ट, उपशम प्रकरण, ६.३७-३८ अर्थात् इस प्रकार की चिन्तन-मननात्मक युक्तियों या उपायों के होते हुए भी जो हठयोग द्वारा अपने मन को नियन्त्रित करना चाहते हैं, वे मानो दीपक को छोड़कर काले अंजन से अन्धकार को नष्ट करना चाहते हैं । जो मूढ़ हठयोग द्वारा अपने चित्त को जीतने के लिए उद्यत है, वे मानो मृणाल-तन्तु से पागल हाथी को बाँध लेना चाहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211566
Book TitleBharatiya Yoga aur Jain Chintandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size544 KB
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