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विश्वशान्ति का एक मात्र उपाय
भगवान् महावीर का अपरिग्रहवाद
श्री नरेन्द्रकुमार भानावत, 'साहित्यरत्न '
मनुष्य की अन्तिम मंजिल की अगर कोई कसौटी है तो वह है शांति चाहे अाध्यात्मिक क्षेत्र में हम इसे मुक्ति कह कर पुकारें, चाहे दार्शनिक वेश में हम उसे वीतराग भावना कहें। इसी शांति की शोध में मनुष्य युग युग से जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहा है। लेकिन आज २० वीं शताब्दि में शांति का क्षेत्र व्यापक एवं जटिल हो गया है। आज व्यक्तिगत शांति के महत्त्व से भी अधिक महत्त्व समष्टिगत शांति (विश्वशांति) का है। इस सामूहिक शांति की प्राप्ति के लिए मानव ने अनेक साधन ढूंढ निकाले । विभिन्न वादों के विवादों का प्रतिवाद भी उसने किया । मार्क्सवाद की विचार धारा में भी वह बहा । लेकिन
तक उसे शांति नहीं मिल पाई है। इसका मूल कारण है आर्थिक वैषम्य । श्राज के विज्ञान से लदे भौतिकवादी युग में रोटी-रोजी शिक्षा-दीक्षा के जितने भी साधन हैं उन पर मानवसमाज के इने गिने व्यक्तियों के उस वर्ग ने कब्जा कर लिया जो कि निर्दयी एवं स्वार्थी बनकर अपने धन के नशे में मदमाता है । दूसरी र अधिकांश ऐसे व्यक्तियों का वर्ग है जो गरीबी में पल रहा है। धन और श्रम के इस भयानक अन्तर और विरोध ने मानव के बीच में दीवाल खड़ी कर दी है। इसी विषमता का चित्रण प्रगतिशील कवि श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' की इन पंक्तियों में देखिये
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" श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं । मां की हड्डी से चिपक ठिठुर -- जाड़ों की रात बिताते हैं ।।
युवती की लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाये जाते हैं। मालिक तत्र तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं । "
एक ओर ऐसा वर्ग है जो पेट और पीठ एक किये दाने दाने के लिए तरसता है तो दूसरी ओर चांदी की चटनी से वेष्टित ऐसे पकवान हैं जिन्हें खाकर लोग बीमार हो जाते हैं। एक ओर रहने के लिएसर्दी, गर्मी, पावस से अपनी रक्षा करने के लिए, टूटा छप्पर तक नसीब नहीं तो दूसरी ओर वे बड़ी बड़ी हालिकाएं हैं जिनमें भूत बोला करते हैं। इसी भेद-भाव को मिटाने के लिए नवीन नवीन विचारों को लेकर विचारकों ने नये नये वादों की सृष्टि की है। लेकिन जितने भी वाद वर्तमान में प्रचलित हैं सभी अधूरे हैं। किसी में रक्तपात है तो किसी में स्वार्थभाव । किसी में व्यवहारिकता है तो किसी में कोरा खयाली पुलाव | लेकिन एक ऐसा साधन और हल (वाद ) है जिस को आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व क्रांतदर्शी भगवान् महावीर ने मनोमन्थन कर अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा प्रतिपादित किया था । वह है “ सव्वे जीवावि इच्छन्ति जीविडं न मरिज्जउं" सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सभी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। इस पावन एवं पुनीत भावना का जन्म और विकास अगर मानवहृदय में हो सकता है तो वह भगवान् महावीर के अनोखे एवं व्यावहारिक अपरिग्रह वाद के सिद्धान्त के बल पर ।
परिग्रह का वर्णन जगत् के सम्पूर्ण धार्मिक ग्रन्थों में पाया जाता है । लेकिन जैनधर्म में इसे
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