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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ विशेष महत्त्व देकर इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने कहा है “मूर्छापरिग्रहः"-अर्थात्-परिग्रह का अर्थ मूर्छाभाव-सांसारिक भौतिक पदार्थों में ममत्व या निजत्व की भावना। किसी भी पदार्थ के प्रति ममत्व की भावना नहीं रखना, यह अपरिग्रह है। आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का संग्रह करना जहाँ एक अोर समाज के प्रति अन्याय है, वहाँ दूसरी ओर अपनी आत्मा का पतन है। अर्थात् तेरे मेरे के भेदभाव को छोड़कर, संग्रह प्रवृत्ति को त्यागकर, अपरिग्रहवृत्ति का अवलम्बन लेकर अाज विश्व में जो द्वन्द्व और तनाव है उसे शांतिमय तरीके से कम करने की प्रेरणा हमें अपरिग्रहवाद से लेनी है। जिनके पास पैसा नहीं है वे अगर यह समझते हों कि हम अपरिग्रही हैं तो वे भूल करते हैं। अपरिग्रही भावना का सम्बन्ध बाह्य धनदौलत से न होकर हृदय की भावना से है। अतः धनवानों को यह नहीं सोचना चाहिए कि हम अपरिग्रही बन ही नहीं सकते। भगवान् महावीर की तो वाणी है कि अगर एक भिखारी के पास केवल तन ढकने को फटा-पुराना चिथड़ा है लेकिन अगर उस चिथड़े के प्रति भी उसका मूर्छाभाव है तो वह भिखारी उस पूंजीपति से ज्यादा परिग्रही है जिसके पास करोड़ों की दौलत है पर उसे वह अपनी नहीं समझता और जो मूर्छाभाव से मुक्त है । अपरिग्रही भावना के विकसित होने पर ही धनपति का क्रूर हृदय भी करुणा से पिघल जाता है। दान और दया की वाहिनी कल कल करती हुई बह उठती है, जिसके प्रेम और अभेदमूलक व्यवहार भरे नीर में अवगाहन कर लड़खड़ाती मानवता निर्मल एवं निडर हो शांति का सांस लेने लगती है।
भगवान् महावीर ने गृहस्थों के बारह व्रत बतलाये हैं। उनपर अगर सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाय तो स्पष्ट है कि उसके मूल में अधिकतम आर्थिक समता स्थापित करने की भावना निहित है, गृहस्थी को मर्यादित और नियमित बनाने की ध्येय है । मर्यादित जीवन में कभी अतिरेक और अतिक्रमण के अभाव में न खुद में अशांति होती है अोर न दसरों को प्रशान्त करने की भावना प्रबल हो सकती है।
बारह व्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत। (३) स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत
स्थूल अब्रह्मचर्य विरमण व्रत। (५) स्थूल परिग्रह विरमण व्रत
(६) दिव्रत। (७) देश व्रत
(८) अनर्थदण्ड विरमण व्रत । (६) सामायिक व्रत
(१०) देशावशिक व्रत। (११) पौषध व्रत
(१२) अतिथि संविभाग व्रत। उपर्युक्त बारह व्रतों में प्रथम के पांच व्रतों में 'स्थूल' शब्द इसलिये रख गया है कि गृहस्थी हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का सर्वथा व सर्व प्रकारेण त्याग नहीं कर सकता। अतः उनका स्थूल दृष्टि से त्याग करने का विधान है। तात्त्विक दृष्टि से इनका महत्त्व मनुष्य को मर्यादित बनाने और उसे संग्रहशील न बनाने में है। प्रथम चार व्रतों में हमें जहां तक हो सके हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्मचर्य का त्याग रखना चाहिए। अपरिग्रह व्रत इसलिए है कि मनुष्य आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे। अधिक संग्रह की प्रवृत्ति ने ही आज मानव समुदाय को अशान्त बना रखा है। इसलिए भगवान् महावीर का कथन है कि प्रत्येक गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं को निर्धारित कर यह नियम करे कि मुझे इससे अधिक द्रव्य नहीं रखना। अगर अधिक द्रव्य बढ जाय तो उसे जनता जनार्दन की सेवा में लगा देना है। ऐसा करने से दूसरे गरीब लोग उसका उपयोग कर जीवन को गति दे पायेंगे। इससे लोभवृत्ति कम होगी। द्रव्यप्राप्ति की होड़हड़प वाली नीति में होने वाले पापकर्म रुकेंगे। इस व्रत में केवल द्रव्य की ही मर्यादा नहीं होती, चलअचल सभी प्रकार
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