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जैन संस्कृति का आलोक
प्रशंसा और स्तुति करे, वह सदैव समभाव में स्थित रहता है।' साधु का दर्शन करने से परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध होते हैं। मोह कर्म का क्षय होता है, साधक श्रमण धर्म में उपस्थित होकर परंपरा से निर्वाण को प्राप्त करता है।
तत्कालीन राजगृह के परम यशस्वी सम्राट् श्रेणिक महाराज भी तपस्तेज से आलोकित साधु के अपूर्व मुखमंडल को देखकर आश्चर्य चकित हो गए थे। उनके मुँह से सहसा आश्चर्यमिश्रित शब्द निकले और मुनि के वैराग्यपूर्ण । वचनों को सुनकर वे मार्गानुसारी बने थे। इसी प्रकार मिथिला नगरी के राजा नमि प्रव्रज्या पद पर आरूढ़ होने पर परीक्षा के लिए आये हुए इन्द्र निरस्तशंक होकर नमि राजर्षि की प्रशंसा करते हए कहते हैं - "आश्चर्य है आपने क्रोध, मान, माया, लोभ को वश में कर लिया है। आपकी सरलता, मृदुता क्षमा एवं निर्लोभता को मैं नमन करता हूँ।"४
नंदीसूत्र में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने सुधर्मा स्वामी से प्रारंभ कर दूष्यगणि तक तथा अन्य भी पूज्य मनि भगवंतों की छब्बीस गाथाओं में श्रद्धापूर्वक स्तुति करते हुए उन्हें नमन किया है। इतना ही नही संतपद को इतना महत्व प्रदान किया गया है, कि ज्ञान का वर्णन करते हुए पाँच ज्ञान में मनःपर्यवज्ञान का अधिकारी मात्र श्रमण को ही बताया गया है। मति, श्रुत अवधि और
केवलज्ञान गृहस्थपर्याय में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु मनःपर्यवज्ञान के लिए द्रव्य और भाव से श्रमण होना अनिवार्य है।
आगम साहित्य के अतिरिक्त नियुक्ति, चूर्णि और भाष्य साहित्य में साधुओं की स्तुति और उनको किया गया नमस्कार हजारों भवों से छुटकारा दिलाने वाला कहा है। इतना ही नहीं नमस्कार करते हुए आत्मा बोधि लाभ को भी प्राप्त हो सकती है। और यदि साधु की भक्ति करते हए उत्कृष्ट भावना आ जाए तो तीर्थंकर गोत्र का भी पण्य उपार्जन कर सकता है। योगिराज आनंदघनजी के पदों में संत-स्तुति
हिंदी साहित्य के संत कवियों में १७वीं सदी के महान् योगिराज आनंदघनजी का नाम सुविख्यात है। उनके अनेकों पंद आज भी साधकों द्वारा गाए जाते हैं। वे उच्च कोटि के विद्वान् ही नहीं अपितु सम्यक् आचारवंत एक महान् संत थे। वे साधुत्व का आदर्श समताभाव में मानते थे। इसी भाव को उन्होंने अपने शब्दों में अभिव्यक्त . किया है -
“मान अपमान चित्त सम गिणे, सम गिणे कनक पाषाण रे, वंदक निंदक सम गिणे,
१. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा, समो निंदा पसंसासु, तहा माणावमाणओ।।
- वही १६/६१ २. साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे, मोहं गयस्स संतस्स, जाइसरणं समुप्पन्नं।।
- उत्तराध्ययन सूत्र १६/७ ३. अहो वण्णो! अहो रूवं, अहो अज्जस्त सोमया,
अहो खंति! अहो मुत्ति! अहो भोगे असंगया।। ४. अहो ते निजिओ कोहो...... - वही ६/५६,५७ ५. नन्दीसूत्र गाथा २५-५०
६. गोयमा! इडिपत्त अपमत्तसंजय सम्मदिट्ठी
पज्जत्तग संखेज वासाउय कम्मभूमिय गब्भवक्कंतिय मणुस्साणं, मणपज्जवनाणं समुप्पजइ।"
- नंदीसूत्र, सूत्र १७ ७. साहूणं नमोकारो, जीवं मोयइ भवसहस्साओ, भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए।।
- आवश्यक नियुक्ति ८. ......संघ साधु समाधि वैयावृत्य करण...... तीर्थकृत्वस्य।
- तत्त्वार्थसूत्र, ६/२३
प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति
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