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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
कबीरदासजी ने संत को जाति-पांति से मुक्त, पंथ, काल, देश की सीमा से परे कहकर उनके ज्ञान से संत का महत्व प्रतिष्ठापित किया है । ' संत की आत्मा हर क्षण संतुष्ट रहती है, उसे किसी चीज की चाह नहीं होती, अन्न भी वह उतना ही ग्रहण करता है, जितने से उदर निर्वाह हो । २ संत गुणग्राही होता है, वह सद्भूत का ग्राहक है, अद्भूत का नहीं । संत का स्वभाव सूप की तरह होता है। ३
संत रविदासजी ने तो संतों के मार्ग पर चलनेवाले मानव तक को प्रणाम किया है, क्योंकि संत के मन में विश्व के कल्याण की कामना कूट-कूट कर भरी होती है । ४
आगम साहित्य में संत-स्तुति
जैन शास्त्रों में साधु के स्वरूप, उनके आचार गोचर, उनकी दिन चर्या, आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । भगवती सूत्र में जहाँ अरिहंत और सिद्ध परमात्मा को परमेष्ठि पद में स्थान दिया है, वहीं साधु को भी परमेष्ठि में स्थान देकर उन्हें परम पूज्य मानकर नमस्कार किया गया है -
१. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।।
२. संत न बांधे गड्डि, पेट समाता लेइ, सांई सु सन्मुख रहै, जह मांगो तह देइ । ।
३. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय ।।
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४. जो जन संत सुमारगी, तिन पाँव लागो रविदास, संतन के मन होत है, सब के हित की बात, घट-घट देखे अलख को, पूछे जात न पाँत ।।
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कबीर ग्रंथावली
वही, २०
वही, २६
गुरु रविदासजी की वाणी ।। १२, १७
“नमो लोए सव्व साहूणं”
अर्थात् लोक के सभी साधुओं को नमस्कार है ।
आवश्यक सूत्र में भी अरिहंत और सिद्ध के समकक्ष साधु को रखकर उसकी गरिमा में अभिवृद्धि की है । अरिहंत और सिद्ध के समान ही साधु को भी मंगल और उत्तम रूप कहकर उनका शरण ग्रहण करने का निर्देश किया गया है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में स्थान-स्थान पर साधु के तप, त्याग, परिषह जय, दुष्कर ब्रह्मचर्य, और समत्व भाव की प्रशंसा मुक्त मन से गायी गई है । साधु समता भाव का आराधक होता है । वह सदा प्रसन्नचित्त रहता है। वह ६ दुष्ट व्यक्तियों द्वारा दिए गए प्रतिकूल उपसर्गों पर भी क्रोध नहीं करता। चंदन को जैसे कुल्हाडी से छेदन-भेदन करने पर भी शीतलता और सुगंध प्रदान करता है, उसी प्रकार साधु भी हर अवस्था में अपने गुणों की सुगंध ही बिखेरता है। लाभ या हानि, सुख के साधन प्राप्त हो या दुःख के निमित्त, शुभ कर्मों का उदय हो या अशुभ कर्मों का उदय, कोई निंदा, अनादर या ताडन तर्जन करे अथवा
५. साहू मंगलं, साहू लोगुत्तमा, साहू सरणं पवज्जामि
६. समयाए समणो होइ
७. महप्पसाया इसिणो हवंति ८. अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ, वासी चंदणकप्पो य, असणे अणसणे तहा ।।
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उत्तराध्ययन सूत्र
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आवश्यक सूत्र
वही ।। १२ ।। ३१
वही, १६ / ६२
प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति
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