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________________ जैन संस्कृति का आलोक प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत-स्तुति 0 जैन साध्वी विजयश्री 'आर्या' M.A. जैनसिद्धांताचार्य ___संत संसार की श्रेष्ठविभूति है। संत पूजनीय एवं अनुकरणीय होते हैं। वे लोक का हित करने में संलग्न रहते हैं। लोकमंगल की भावना उनके रोम-रोम में रमी हुई रहती है। संत स्वयं भी संसार सागर को तिरते हैं एवं अन्यों को भी तारते है। अतः संत-स्तुति अवर्णनीय है। .....परमविदुषी जैन साध्वी विजयश्री 'आर्या' एम.ए. अपने आलेख "प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य में संत स्तति" के माध्यम से संत-महिमा का दिग्दर्शन करवा रही हैं। -सम्पादक भारतीय संस्कृति के प्राण : सन्त भारतीय संस्कृति की किसी भी शाखा-प्रशाखा में सन्त का स्थान सर्वोपरि है। संत को परमात्मा का उत्तराधिकारी कहा जाता है। इसी कारण यहाँ सम्राट् की अपेक्षा संत को अधिक गौरव और आदर का स्थान प्राप्त है। सम्राट् का सत्कार अवश्य होता है, पर पूजा संत की ही होती है। भारत की जनता ने सदा संत जीवन की पूजा के साथ ही संत जीवन का अनुसरण भी किया है। संत अपने लिए ही नहीं, विश्व के लिए जीता है। अतः संत की आत्मा में समूचा विश्व समाया हुआ है। विश्व की धड़कन संत के हृदय की धड़कन है। विश्व के हर प्राणी का संवेदन संत-हृदय का संवेदन है। भगवान्बं पार्श्व की परम कारुणिक भावना का चित्रण करते हुए एक कवि ने कहा है; “जात्यैवेते परहितविधौ साधवो बद्धकक्षा" अर्थात् साधुजन स्वभाव से ही परहित करने में सदा तत्पर रहते हैं। इसी बात को महाकवि तुलसीदासजी ने इन शब्दों में कहा है; “सरवर-तरवर-संतजन, चौथो बरसे मेह, परमारथ के कारणे, चारों धारी देह ।।" जिनदासगणि महत्तर ने तो संतजनों को पृथ्वी के चलते-फिरते कल्पवृक्ष कहा है।' कल्पवृक्ष लौकिक अभिलाषाओं की पर्ति करता है, वह भी कुछ समय के लिए। किंतु संतरूपी कल्पवक्ष लोकोत्तर वैभव की वृद्धि करता है, जो अविनश्वर है। श्रीमद भागवत में कर्मयोग के उपदेष्टा श्रीकृष्ण कहते हैं - सन्तजन सबसे प्रथम देवता है. वे ही समस्त विश्व के ध हैं। वे विश्व की आत्मा हैं मझमें और संत में कोई अंतर नहीं है। सिक्खों के गुरू अर्जुनदेव ने संत को धर्म की जीती जागती मूरत कहा है। साधु की स्तुति वेदों ने भी गायी है। साधु के गुणों का कोई पार नही । ३ १. विविह कुलुप्पणा साहवो कप्परुक्खा। - नन्दी चूर्णि २/१६ २. देवता बांधवा संतः, संतः आत्माऽहमेव च। - श्रीमद् भागवत ११-२६-३४ ३. साधु की महिमा वेद न जाने जेता सुने तेता वखाने, साधु की शोभा का नहीं अंत, साधु की शोभा सदा बे-अंत।। - गुरू अर्जुनदेव | प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211426
Book TitlePrachin Jain Hindi Sahitya me Sant Stuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshreeji Sadhvi
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Stotra Stavan
File Size668 KB
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